श्रीराम लागू
(Image courtesy: Freedom From Religion Foundation) |
मैं भी भारतीय हूं। भारतीय संस्कृति में पला बढ़ा हूं। एक कर्मकांडी परिवार में पला बढ़ा हूं। इसके बावजूद मैं बचपन से नास्तिक बना। फिलवक्त़ हम इस बात पर गौर नहीं करेंगे कि यह किस तरह हुआ, लेकिन मैं अपने नास्तिक बनने के स्वरूप पर रौशनी डालना चाहूंगा।
मैं भी भारतीय हूं। भारतीय संस्कृति
में पला बढ़ा हूं। एक कर्मकांडी परिवार में पला बढ़ा हूं। इसके बावजूद मैं बचपन से
नास्तिक बना। फिलवक्त़ हम इस बात पर गौर नहीं करेंगे कि यह किस तरह हुआ, लेकिन मैं अपने नास्तिक बनने के
स्वरूप पर रौशनी डालना चाहूंगा। ईश्वर का मतलब अपने मन के सन्तोष के लिए आधार गयी
कोई संकल्पना नहीं है, ऐसी संकल्पना जिसके सहारे मन को मजबूती मिलती है। ऐसा खुदा मेरे मन
में नहीं है।
परमेश्वर एक अतिमानवीय शक्ति है, जिसने दुनिया भले न बनायी हो लेकिन वह
उस पर नियंत्रण करता है और उस शक्ति के सामने मुझे शरणागत होना चाहिए, अगर वह शक्ति गुस्सा हुई तो मेरा
दुर्भाग्य होगा और वह शक्ति अगर प्रसन्न हुई तो मेरी जिन्दगी का कल्याण होगा -
खुदा को लेकर यह जो समझदारी है, ऐसे खुदा से मेरा झगड़ा है। यह संकल्पना साधारण मनुष्य की होती है।
किसी ज्ञानेश्वर की संकल्पना आध्यात्मिक स्वरूप की होती है। अपने आत्मा को मोक्ष
मिले और उसे मुक्ति मिले इसलिए इस शक्ति का ध्यान किया जाना चाहिए, नाम-स्मरण किया जाना चाहिए और इस वजह
से मन को शांति मिलेगी यही इसके पीछे का मकसद होता है। ऐसी संकल्पना से मेरा झगड़ा
नहीं है। झगड़ा इसीलिए नहीं कि वह उस मनुष्य तक सीमित होती है, समाज को उससे कोई तकलीफ नहीं होती।
पहले जिस संकल्पना को बयां किया गया वह अत्यधिक घातक किस्म की है।
इस बात पर विचार करते हुए यह पता चलता
है कि परमेश्वर जैसी शक्ति की मौजूदगी को लेकर किसी भी तरह का सबूत देना पिछले
पांच हजार सालों से मनुष्य के लिए मुमकिन नहीं हुआ है। इस संकल्पना पर मनुष्य का
विश्वास क्यों बना, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है।
आइये, देखते हैं कि परमेश्वर नामक संकल्पना का आगमन कैसे हुआ। पुरातन समय अर्थात
जिसे मैं पांच हजार साल कहूँगा। हमारा
वैदिक काल पांच हजार साल पुराना है ऐसा कहा जाता है। अगर इसी आधार पर देखें तो
पांच हजार सालों से मनुष्य बौद्धिक स्तर पर बेहद सामान्य स्तर पर था, यह बात निर्विवाद कही जा सकती है। अर्थात
उसे साधारण किस्म की प्राकृतिक घटनाओं का अर्थ समझ में नहीं आ रहा था। अर्थात पानी
क्यों बरसता है, भूचाल कैसे आता है, ज्वालामुखी किस तरह फट पड़ता है, आदि बातें उसे समझ में नहीं आ रही थीं
और उसी वक्त़ वह यह भी देख रहा था कि अगर ठीक से बरसात हुई तो खेती अच्छी होती है।
आसमान में जब बिजली कड़कड़ाती थी तब वह सौंदर्य का अनुभव कर रहा था और उसी समय अगर
बिजली नीचे जमीन पर गिरी तो जो तबाही मचती थी उससे वह विचलित भी होता रहता था। वह
इन सभी बातों का यही अर्थ निकाल रहा था कि इन सभी शक्तियों को नियंत्रित करने वाली
एक अतिमानवी ताकत है। यह नियंत्रण करने वाली एक बेहद जबरदस्त ताकत है और वह आसमान
में कहीं है। उस मनुष्य द्वारा ऐसी बात पर विश्वास करना उसकी अल्प मति का लक्षण था, इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन इस ताकत
के वजूद का प्रमाण हमें ढूंढना चाहिए, यह बात मनुष्य नामक उस प्राणी को विगत पांच हजार सालों में सूझी नहीं
होगी क्या ? इसका जवाब यही होगा कि उसे निश्चित ही
यह बात समझ में आयी होगी और इस ताकत की खोज के लिए उसने निश्चित ही कोशिश की होगी।
कुछ व्यक्तियों को ईश्वर के प्रकट
होने की दिव्य- प्रेरणा मिली और उसी आधार पर यह कहा जाता है कि ज्ञानेश्वर महाराज
को दर्शन हुए हुआ, उन्हें प्रत्यक्ष ईश्वर के दर्शन हुए, तुकाराम महाराज को प्रत्यक्ष विठोबा के दर्शन हुए। ऐसे इलहामों की
ख़बरें सुनते सुनते मनुष्य की काफी शक्ति ज़ाया हो गयी। ऐसे लोग जो दावा करते रहे
हैं कि उन्हें साक्षात्कार हुआ है, वह ढोंगी नहीं कहे जा सकते, वह ईमानदार हैं। समाज के प्रति किसी बेचैनी के चलते कुछ काम करते
रहनेवाले लोग हैं। मुमकिन है कि उन्हें इलहाम हुआ हो, मगर मुझे नहीं होता। इसका मतलब क्या
यह कहा जाए कि मैं पापी व्यक्ति हूं? तुकाराम-ज्ञानेश्वर के स्तर पर नहीं जा सकता, ऐसी उनकी मान्यता बनी और इसी बात पर
सबसे पहला आघात विज्ञान के आगमन ने किया था।
विज्ञान की शुरुआत हुई चार सौ साल
पहले। कोपर्निकस इस वैज्ञानिक ने सबसे पहला हमला बोला। उसने बताया कि सूरज पृथ्वी
के इर्दगिर्द नहीं घूमता है बल्कि पृथ्वी सूरज के इर्दगिर्द घूमती है। बाइबिल में
बताया गया था कि पृथ्वी ही पूरी दुनिया का केन्द्रबिन्दु है और सभी ग्रह -तारे
उसके इर्दगिर्द घूमते हैं। धर्मगुरूओं ने ऐलान किया कि यह शख्स पाखंडी है।
कोपर्निकस कोई परमेश्वर या धर्म के खिलाफ आगे नहीं बढ़ा था , वह तो सत्य की तलाश में निकल पड़ा था। अपने अनुभव और कोशिशों से उसने
यही पाया कि सूर्य पृथ्वी के इर्दगिर्द नहीं घूमता है बल्कि पृथ्वी सूर्य के
इर्दगिर्द घूमती है और इस सत्य को लोगों के सामने पेश करने का साहस उसने दिखाया और
विज्ञान के प्रति वफादार इस व्यक्ति को बहुत
कुछ सहना पड़ा क्योंकि उसने धर्म के खिलाफ बात कही थी, जो बातें मनुष्य के दिमाग में तीन
हजार साल से धंसी थीं।
कोपर्निकस के अनुसंधान को आधार बना कर
दूसरे वैज्ञानिकों ने काम किया। गैलिलिओ द्वारा की गयी टेलीस्कोप/दूरबीन की खोज के
चलते उसे भी ऐसी ही प्रताड़ना झेलनी पड़ी। उसने जब माफी मांगी तभी उसे रिहा किया
गया। लेकिन उसके द्वारा विकसित दूरबीन से यह बात तो प्रमाणित हो गयी कि पृथ्वी ही
सूर्य के इर्दगिर्द घूमती है। लेकिन मनुष्य के मन में परमेश्वर की संकल्पना इतनी जड़मूल
थी कि उसे आसानी से छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं था। जब तक मनुष्य इस संकल्पना का
परित्याग नहीं करता तब तक उसके घरेलू जीवन में सुख की उपस्थित बनेगी ऐसा नहीं
दिखता। इसकी वजह यही है कि विगत पांच हजार सालों से मनुष्य ने परमेश्वर नामक इस
संकल्पना का इतना महिमामंडन किया है - वह विश्व का पालनकर्ता है, वह बेहद दयालु है, अगर भक्त आवाज़ दें तो वह उनकी रक्षा
के लिए पहुंच जाता है, ऐसी तमाम बातें कही जाती रही हैं। इसके चलते उस पर यकीन करने की बात
अपने आप संभव होती रही है। इसके बावजूद परमेश्वर की निगाह से देखें तो एक के बाद
एक धर्मों की स्थापना हुई। सबसे पहले सिर्फ हिन्दू धर्म था, उसके बाद क्रिश्चियनिटी का आगमन हुआ
और बारह सौ साल पहले इस्लाम की स्थापना हुई। इन सभी धर्मों में साझा यही बात है कि
ईश्वर का अस्तित्व होता है। ऐसी एक ताकत है और इस ताकत के वजूद का कोई भी सबूत अभी
तक मनुष्य को नहीं मिला है। बिल्कुल इस्लाम धर्म की स्थापना होने तक ऐसा कोई
प्रमाण नहीं मिल सका है। और यह सभी धर्म विज्ञान के आगमन के पहले के हैं। उन प्राकृतिक
सवालों के जवाब मनुष्य को नहीं मिल रहे थे और इसलिए एक परमेश्वर जैसी संकल्पना पर
विचार किया गया।
आज इन अधिकतर सवालों का खुलासा
विज्ञान ने किया है। सभी प्रश्नों का जवाब विज्ञान को मिल गया है, ऐसा विज्ञान का दावा बिल्कुल नहीं है।
विज्ञान का यह दावा ईमानदारी/सत्यता का है, विनम्रता का है। विज्ञान ने कुछ खोजें की हैं, कुछ अनुसंधान अभी चल रहा है और कुछ
आगे भी चलेगा। विज्ञान अहंकार के साथ यह दावा नहीं करता कि मेरे पास सभी प्रश्नों
का जवाब है, जिस तरह गीता या
कुराण या बाईबिल जैसे धर्मग्रंथों में दावा किया जाता है कि उनमें सभी प्रश्नों के
उत्तर समाहित हैं। ऐसा अहंकार विज्ञान के पास नहीं है। इस दुनिया का निर्माण किसने
किया, इस बात को अभी बताया नहीं जा सकता, लेकिन और कुछ सालों के बाद इसकी खोज
होगी, ऐसे संकेत मिल रहे हैं। इन चार सौ
सालों में इतनी तेजी के साथ इतने सारे प्रश्नों का जवाब मिल गया है कि और चार सौ
साल बीतने के बाद, उन प्रश्नों के जवाब भी दिए जा सकेंगे।
लेकिन आज बड़ा सवाल यह है कि आज मौजूद
सभी धर्म चूंकि विज्ञान के उदय के पहले से अस्तित्व में होने के चलते अब
अप्रासंगिक हो गए हैं। इन सभी धर्मों को खारिज करना होगा। इन सभी धर्मों का ‘सर्वधर्मसमभाव’ एक बकवास संकल्पना है।
अर्थात सभी धर्म समान है। मगर यह बात सच नहीं है। यह बात मुझे स्पष्ट दिख रही है।
इन धर्मों की स्थापना के बाद से ही धर्मों के बीच कलह शुरू हुई है और उन्होंने ऐसे
संघर्षों में उन्होंने इतना खून बहाया है कि खून बहाने के जो अन्य दूसरे रास्ते
हैं, अर्थात बीमारियां, प्राकृतिक आपदाएं आदि के चलते जितने
लोग मरते रहे हैं, उससे कई गुना लोग इन धर्मों के बीच आपसी संघर्षों में मरे हैं। आप
इसे हर धर्म के इतिहास में देख सकते हैं या आप इस तथ्य पर भी गौर कर सकते हैं कि
किस तरह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुआ सिक्खों का कत्लेआम - ऐसे
जनसंहारों में मनुष्य का इतना खून बहा है कि जब यह कहा जाता है कि धर्म शांति का
संदेश देते हैं तो इसका अर्थ मैं समझ नहीं पाता।
अगर आप धर्मग्रंथों को पलटेंगे तो
उसमें यह सब प्रेम के दायरे में दिखेगा। लेकिन जब हम वास्तविकता को देखते हैं, पांच हजार सालों के इतिहास को पलटते
हैं, तब यह नज़र आता है कि ये सभी धर्म एक
दूसरे के साथ संघर्षरत है। ये सभी धर्म अप्रासंगिक हुए है इसलिए उन्हें रिटायर
किया जाना चाहिए। परमेश्वर को रिटायर करने का अर्थ यही है कि इस संकल्पना को अपने
दिमाग से निकाले बगैर निधर्मी / सेक्युलर होने की संकल्पना आप के दिमाग में पहुंच
नहीं सकेगी। सभी मनुष्यों का धर्म एक ही होना चाहिए मगर उसमें परमेश्वर का आधार
नहीं बल्कि इसमें केवल नैतिकता का आधार होगा, इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाहित होगा, उसमें सौंदर्यशास्त्र का आधार होगा।
ऐसा संबंध जो समूची मानवता को अपने आगोश में ले सके ऐसा एक धर्म / अगर आप ‘धर्म’ शब्द को इस्तेमाल करना चाहें तो / होगा, ‘समाज को जो ढालता है वह धर्म’/ धारयति इति धर्म:/ इस संदर्भ में मैं इस शब्द का इस्तेमाल कर रहा
हूं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि समाज के नीति -नियमों का पालन।
अगर सभी धर्मों को खारिज करना होगा तो
अपने दिमाग से ईश्वर की संकल्पना को ही समाप्त करना होगा। एक इन्सानियत के मंच से
हम दुनिया को कुछ दे सकते हैं। ‘विश्वधर्म’ की कल्पना कइयों ने पेश की है। विवेकानंद ने भी इसे प्रस्तुत किया
है। उन्होंने एक जगह कहा है कि बुद्ध यह सबसे बड़ा कर्मयोगी है अर्थात वह क्या कहना
चाहते हैं ? उन्होंने हिन्दू धर्म का परित्याग
करके अपना बौद्ध धर्म बनाया। वही सबसे बड़ा कर्मयोगी है अर्थात सबसे बड़ा हिन्दू हैं, ऐसा अटपटा बयान विवेकानन्द नहीं दे
सकते। इस बयान का अर्थ यह हो सकता है कि जो लोक कल्याण के लिए निरन्तर कर्मयोग पर
अमल करता है वही सच्चा हिन्दू। भले ही उसका धर्म कुछ भी हो। मुझे लगता है कि
हिन्दू धर्म की उन्होंने व्यापक व्याख्या की है। बुद्ध को उन्होंने सच्चा कर्मयोगी
इसके लिए कहा कि वह निरन्तर लोक कल्याण के लिए प्रयासरत रहा। वह किस धर्म से जुड़ा
है यह बात उसने नहीं पूछी.
मुझे बताइये कि ईश्वर का वजूद बीते
पांच हजार सालों से है, इस बात को आप किस आधार पर कह रहे हैं ? इसका सबूत जब तक आप नहीं देते, तब तक मैं यहीं कहूंगा कि वह मुमकिन नहीं है। नास्तिकों को मैं समझ
सकता हूं, मगर आस्तिकों की बात मुझे समझ में
नहीं आती। आखिर वह किस आधार पर आस्तिक बने हुए हैं ? जिसके वजूद का कोई सबूत मौजूद नहीं, उस पर वह कैसे यकीन करते हैं। अगर आप यह कहना चाह रहे हैं कि ईश्वर
का अस्तित्व है, तो उसे साबित करने
की आप की जिम्मेदारी नहीं बनती ?
हर किस्म की श्रद्धा दृष्टिहीन होती है। आप यह फर्क नहीं कर सकते हैं
कि फला श्रद्धा अंधश्रद्धा है तो फलां श्रद्धा अंधश्रद्धा नहीं है। हम आंख मूंद कर
यकीन करते हैं, उसे ही ‘श्रद्धा या आस्था’ कहते हैं। विश्वास और श्रद्धा में बहुत बड़ा फर्क है। मेरा कुसुमाग्रज
पर यकीन / विश्वास है, गांधी पर विश्वास है, यह मैं कह सकता हूं। लेकिन जब मैं यह कहता हूं कि गांधी पर मेरी
श्रद्धा है, उसका मतलब होता है
उन्होंने जो कुछ किया वह सभी ठीक ही होना चाहिए, ऐसा मैं मानता हूं। मैं ईश्वर पर श्रद्धा या विश्वास किस आधार पर
रखूं ? आंख मूँद कर ही उसे अंजाम दिया जा सकता है। पहले परमेश्वर की इस
संकल्पना पर यकीन करना होता है और फिर उसके सामने शरणागत होना पड़ता है।
मैं अपने आप को तर्कवादी /रेशनेलिस्ट/ बुद्धिप्रामाण्यवादी इन्सान
समझता हूं। रसेल ने एक जगह लिखा है कि तर्कवाद उतनी आसान चीज़ नहीं है। वह बहुत
मुश्किल कदम है। अगर आप ने किसी एक मसले पर तर्कवाद को लागू किया तो उस मसले का
विश्लेषण करते करते वह जहां भी आप को ले जाता है, वहां पहुंचने की हमारी तैयारी होनी चाहिए। जिस जवाब तक आप को
पहुंचाता है उसे स्वीकारने की तैयारी होनी चाहिए। इसलिए जब मैं परमेश्वर नहीं है, इस निष्कर्ष तक पहुंचा तो वह मेरे
समग्र तर्क वितर्क/बहस का ही हिस्सा होता है।
‘मेरी तर्कशीलता’ शीर्षक से प्रस्तुत यह आलेख डॉक्टर श्रीराम लागू के लेखों-साक्षात्कारों
के संकलन ‘रूपवेध’ / प्रकाशक: पाप्युलर प्रकाशन, मुंबई, 1993/ से साभार लिया गया है