सुभाष गाताडे
एक गांधीवादी परिवार में जन्मे इस बच्चे का नाम था श्रीराम लागू, .. पेशे से नाक कान गले के डॉक्टर लागू ने बाद में अपनी मेडिकल प्रैक्टिस को अलविदा कह कर अभिनय - क्षेत्र के लिए ही अपने आप को समर्पित किया.. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जबरदस्त हिमायती श्रीराम लागू की दूसरी छवि से हिन्दी भाषी लोग बहुत कम परिचित हैं। … वह नास्तिकता के प्रचारक थे और समाज की कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष में भी मुब्तिला रहते थे।
“A good world needs knowledge, kindness, and
courage; it does not need a regretful hankering after the past or a fettering
of the free intelligence by the words uttered long ago by ignorant men’
-
Bertrand Russell
वह 1938-39 का साल था, जब पुणे के भावे स्कूल में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में एक छोटे
बच्चे को गोपाल कृष्ण गोखले की भूमिका के लिए उसके अध्यापक ने प्रेरित किया।
उत्साह में बच्चे ने हामी भरी, अलबत्ता जब नाटक शुरू हुआ तो सभागार में बैठी भीड़ देख कर इतना डर गया
कि उसने स्टेज पर पहुंचने से ही इन्कार किया। बाद में किसी तरह स्टेज पर वह पहुंचा
अलबत्ता बुत बन कर खड़ा रहा। नाटक में शामिल अन्य सहपाठियों द्वारा कुछ सम्वाद
प्रॉम्प्ट किए जाने पर अचानक उसने नाटक के सम्वाद बोलना शुरू किया और पूरे नाटक के
सम्वाद एक के बाद एक बोलता गया।
अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए
उन्होंने व्याख्यान भी दिए, किताबें भी लिखीं।
’बुवाबाजी या धोखाधड़ी’ शीर्षक पर दिए गए
एक छोटे व्याख्यान में श्रीराम लागू ने स्पष्ट किया था कि किस तरह कुरीतियों के
संघर्ष से लड़ने की 2,500 साल पुरानी परम्परा
हमारे यहां मौजूद है जिसमें चार्वाक, बुद्ध से लेकर संत तुकाराम जैसी शख्सियतें हैं। उनका यह भी कहना था
कि जहां शब्द को ही प्रमाण माना जाता है, वहां अंधश्रद्धा बखूबी पनपती है, इसलिए उन्होंने शब्दप्रमाण्य छोड़ कर बुद्धिप्रामाण्य स्वीकारने के
लिए लोगों का आवाहन किया था।
मालूम हो उन्होंने डा. नरेन्द्र
दाभोलकर और उनके साथियों द्वारा बनायी गयी अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के साथ जुड़
कर काफी काम किया। खुद डा. दाभोलकर भी अपनी किताब में जनता को जागरूक बनाने के लिए
समिति द्वारा हाथ में ली गई ‘विवेक जागरण - वाद संवाद’ मुहिम की चर्चा करते हैं जिस डा. श्रीराम लागू ने बढ़ चढ़ कर सहयोग
दिया। डा. श्रीराम लागू ‘बुद्धिप्रामाण्यवादी अर्थात
रैशनैलिस्ट’ थे और उन्होंने अपने नास्तिक होने को लेकर अपने विचार जगह जगह प्रगट
किए थे। इसी बात को ध्यान में रखते हुए ऐसे वाद संवाद समिति की तरफ से महाराष्ट
में जगह जगह कार्यक्रम आयोजित किए जाने लगे। इसमें सबसे पहले 15 मिनट डा. लागू तर्कशीलता के बारे में, अपने नास्तिक होने के बारे में लोगों
से बात करते थे और बाद के पन्द्रह मिनट डा. दाभोलकर समिति के कामकाज पर रौशनी
डालते थे और उसके बाद खुली चर्चा चलती थी। एक शहर से दूसरे शहर की ये यात्राएं डा.
लागू की अपनी कार में ही चलती थी।
नास्तिकता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता
के चलते उन्होंने एक अग्रणी अख़बार में बाकायदा लेख लिख कर ‘ईश्वर को रिटायर करो’ का आवाहन किया था, जिसको लेकर
महाराष्ट के बौद्धिक जगत में जबरदस्त हंगामा मचा था। ‘ईश्वर को रिटायर करो’ यह उनका कहना सिर्फ सनसनी पैदा करने
के लिए नहीं था बल्कि यह उनका वैचारिक आग्रह था।
सुभाष गाताडे लेखक तथा वामपंथी एक्टिविस्ट हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक 'मोदीनामा’ लेफ्ट वर्ड से हाल में
प्रकाशित हुई है। वे एन.एस.आई. से
सम्बन्धित हैं।