संजय कुमार


भारत का विभाजन दक्षिण एशिया के इतिहास के सबसे स्याह अध्यायों में से एक है। पूव में बंगाल और उत्तर-पश्चिम में पंजाब दक्षिण एशिया के दो बेहद महत्वपूर्ण इलाके थे जो बीसवीं शताब्दी के मध्य में धार्मिक आधार पर बांट दिए गए थे। सदियों के दौरान सींची गई इलाकाई संस्कृतियां और सामाजिक ताना-बाना रातोरात तार-तार हो गया था और उनके टुकड़े अलग-अलग नवस्वाधीन राष्ट्र राज्यों का हिस्सा बना दिए गए थे। प्रस्तुत लेख में विभाजन के ठीक पहले इन प्रांतों की स्थिति का जायजा लेते हुए ये समझने की कोशिश की गई है कि बंटवारे के बाद वहां मानव विकास की दिशा और दशा क्या रही है।

बंगाल का विभाजन और बाद के हालात

बंगाल औपनिवेशिक शासन के तहत आने वाला पहला बड़ा प्रांत था। अपनी बर्बरता के लिए मशहूर ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहां के फलते-फूलते उद्योगों को तहस-नहस कर दिया और लगान वसूली की जमींदारी व्यवस्था लागू की जिससे किसानों में भारी गरीबी फैलती चली गई। इस प्रांत में कई दुर्भिक्ष भी आए जिसमें 1943 का दुर्भिक्ष सबसे भयानक था जिसके दौरान 20 लाख से ज्यादा इंसान मौत के मुंह में चले गए थे। कलकत्ता में एक से एक औपनिवेशिक अट्टालिकाएं थीं मगर उसी जमाने में बंगाल के किसान देश के सबसे निर्धन किसानों में गिने जाते थे।

यह प्रांत प्रबोधनकालीन नवजागरण के सार्वभौमिक मूल्यों से परिचित होने वाला पहला राज्य था और यहीं उपनिवेशवाद विरोधी राजनीति भी विकसित हुई। भाषा के आधुनिकीकरण, साक्षरता, महिला उत्पीड़न की रोकथाम, धार्मिक सुधारों और वैज्ञानिक तकनीकी शिक्षा के क्षेत्रों में नागर समाज द्वारा किए गए अथक प्रयासों से यहां एक जीवंत सांस्कृतिक परिवेश विकसित हुआ था। रवींद्रनाथ टैगोर और काज़ी नज़रूल इस्लाम अपवाद नहीं बल्कि बंगाल के सांस्कृतिक जीवन के विस्तार और गहराई के प्रतीक थे। एक गहन भाषायी और सांस्कृतिक आत्मचेतना पूरे प्रांत में फैल चुकी थी। जिस समय इस प्रांत को भारत और पाकिस्तान के बीच बांटा गया, उसके पांच साल के भीतर यानी 1952 में पूर्वी पाकिस्तान के लोग उर्दू थोपे जाने के खिलाफ खड़े हो चुके थे। यह कोई दुर्घटना या संयोग की बात नहीं थी कि बांग्लादेश ने 1972 में अपने राष्ट्रगान के लिए रवींद्रनाथ टेगौर की ही कविता को चुना था।

यह प्रांत रेडिकल वामपंथी धारा को अपनाने और फैलाने के मामले में भी पहला प्रांत रहा। तेभागा वामपंथी नेतृत्व में पहला संगठित किसान आंदोलन था। वामपंथी राजनीति धारा नक्सलबाड़ी, आपरेशन बर्गा और पश्चिम बंगाल में 34 साल के वामपंथी शासन के दौरान किसी ना किसी रूप में यहां लगातार आगे बढ़ती रही। बांगलादेश की आजादी के बाद वहां मुजीबुर्रहमान की सरकार सत्ता में आयी जो वामपंथी लोकवादी राजनीति के नजदीक थी और उसने बांगलादेश के लिए एक पीपुल्स रिपब्लिक यानी गणतंत्र का नाम चुना और अपने संविधान में समाजवाद और धर्मनिपरेक्षता को सिद्धांतों के रूप में स्वीकार किया। बांग्लादेश में सैनिक तानाशाहों के खिलाफ तमाम जनांदोलनों में वामपंथ सबसे अगली कतार में रहा है। 1975 में जब फौजी तख्तापलट के जरिए मुजीबुर्रहमान की सरकार हटा दी गई, तभी से बांग्लादेशी राष्ट्रवाद और इस्लामिक कट्टरपंथियों के बीच गहरा टकराव चला रहा है। बांग्लादेशी राष्ट्रवादी धारा में वामपंथी लोकवादी चरित्र बहुत साफ दिखाई देता है। ऐसा लगता है कि बीते सालों के दौरान बांग्लादेशी राष्ट्रवादी धारा को काफी मजबूती मिली है।

विभाजन से पहले का बंगाल

बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल, दोनों ही स्थानों पर संगठित जनराजनीति बहुत व्यापक पैमाने पर दिखाई देती है। राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक धरातल पर एकाधिकार और उसके लिए विभिन्न दलों के बीच घनी प्रतिस्पर्धा भी एक महत्वपूर्ण ताजा परिघटना है। जनांदोलनों का स्तर और सघनता तथा बड़ी तादाद में मतदान यहां जनता की गोलबंदी का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। गौर करें कि बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल, दोनों जगह पिछले आम चुनावों में 82 प्रतिशत से भी ज्यादा मतदान दर्ज किया गया था।

सन् 1947 के विभाजन से आर्थिक संसाधनों का बंटवारा भी हुआ मगर यह बंटवारा बराबरी की शर्तों पर नहीं हुआ। बंगाल का व्यावसायिक और औद्योगिक केंद्र पश्चिम बंगाल में कलकत्ता के आसपास रहा जबकि ज्यादातर खेतिहर इलाके पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में आए। आजादी के समय भारत के औद्योगिक उत्पादन में पश्चिम बंगाल का हिस्सा 24 प्रतिशत बैठता था और कुछ गणनाओं के हिसाब से यहां का प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद तमाम राज्यों से ऊंचा था। अब पश्चिम बंगाल को वैसा आर्थिक प्रभुत्व और पहचान हासिल नहीं है। सन् 2000 में यहां का औद्योगिक उत्पादन भारत के औद्योगिक उत्पादन में मात्र 3.9 प्रतिशत रह गया था जबकि इसकी प्रति व्यक्ति आय तो भारत की औसत आय से भी नीचे जा चुकी थी।

मगर, बहुत सारी सामाजिक कसौटियों के हिसाब से पश्चिम बंगाल का प्रदर्शन भारत के औसत प्रदर्शन से बेहतर भी रहा है। उदाहरण के लिए, 2011 की जनगणना में यहां की साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से 3 प्रतिशत से अधिक ऊपर (77 प्रतिशत बनाम 74 प्रतिशत) थी और औसत आयु पूरे भारत  की औसत आयु से दो साल अधिक थी (70.2 वर्ष बनाम 69.9 वर्ष) शिशु एवं प्रसूता मृत्यु दर की घटनाएं यहां अखिल भारतीय औसत से 30 प्रतिशत कम रही हैं। लिहाजा, अपने कमजोर आर्थिक प्रदर्शन के बावजूद यह राज्य अपने निवासियों को एक बेहतर जीवन देने में सफल रहा है। इस लिहाज से उसकी स्थिति बांगलादेश जैसी ही दिखाई देती है जिसने सामाजिक संकेतकों के धरातल पर भारत के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन हासिल किया है जबकि आर्थिक स्तर पर भारत की स्थिति बेहतर है। सामूहिक गोलबंदी और राजनीतिक जागरूकता इस सफलता के पीछे मुख्य कारण दिखाई देते हैं।

विभाजन के 72 साल बाद बांगलादेश और पश्चिम बंगाल अभी भी सामाजिक और आर्थिक संकेतकों के हिसाब से बहुधा एक जैसे ही दिखाई देते हैं मगर कई दृष्टियों से उनमें गहरे फर्क भी हैं। आबादी और इलाके, दोनों के लिहाज से बांगलादेश पश्चिम बंगाल से दो तिहाई बड़ा है। बांगलादेश की अर्थव्यवस्था ने पिछले दो दशकों के दौरान महत्वपूर्ण प्रगति की है। साल 2019 में बांगलादेश की अर्थव्यवस्था 314 अरब डॉलर की हो चुकी थी जो पश्चिम बंगाल के जीडीपी से लगभग 65 प्रतिशत अधिक है। मगर, प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से पश्चिम बंगाल की प्रति व्यक्ति आय 6,032 डॉलर है जो अभी भी बांगलादेश की प्रति व्यक्ति आय 4,992 से लगभग 20 प्रतिशत अधिक है।

निम्नलिखित टेबल में दोनों देशों के कुछ सामाजिक एवं आर्थिक संकेतकों की स्थिति देखी जा सकती है।

 

 

बांगलादेश

पश्चिम बंगाल

क्षेत्रफल (किलोमीटर)

1,48,000

88,700

जनसंख्या (करोड़)

16.3 (2019est)

9.88

जीडीपी (अरब डॉलर)

314 (2019est)

190(2019est)

प्रति व्यक्ति आय

4992 (2019est)

6032

साक्षरता दर

73%

77%

औसत उम्र (वर्ष)

73.4

70.2

शिशु मृत्यु दर (प्रति 1000 पर)

26.9(2017)

25(2016)

प्रसूता मृत्यु दर (प्रति 1000 पर)

173(2017)

101 (2014-16)

प्रजनन दर

2.1

1.6(2017)

 दोनों इलाकों में विकास की किसी भी तुलनात्मक समझदारी के लिए हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि पूर्वी पाकिस्तान (और पाकिस्तान विभाजन के बाद बांगलादेश) में आर्थिक और सामाजिक विकास का शुरुआती स्तर पश्चिम बंगाल के मुकाबले तुलनात्मक रूप से कमजोर था। इसके अलावा, बंगाल का यह पूर्वी भाग एक हिंसक गृहयुद्ध का भी शिकार रहा। बांगलादेश की स्थापना के बाद यहां राजनीतिक उथल-पुथल भी रही और कई घातक चक्रवात भी चुके हैं।

साल 2009 के लिए विश्व बैंक द्वारा जारी किए गए आंकड़ों में बताया गया है कि बांगलादेश में धान की उपज 4.1 टन प्रति हैक्टेयर है जबकि भारत में धान की उपज 3.1 टन प्रति हैक्टेयर है। चूंकि पश्चिम बंगाल की उपज भारत की औसत उपज के नजदीक पड़ती है इसलिए हम ये कह सकते हैं कि बांगलादेश अपने कृषि पिछड़ेपन से आगे निकलने में पश्चिम बंगाल से ज्यादा सफल रहा है। गरीबी उन्मूलन की दिशा में तेज प्रगति और सामाजिक आर्थिक संकेतकों में सुधार की वजह से बांगलादेश वैश्विक विकास अनुसंधानों में भी एक मिसाल जैसी हैसियत हासिल कर चुका है। 2010 की यूएनडीपी रिपोर्ट में कहा गया था कि बांगलादेश नेएचडीआई के नए संस्करण के अनुसार बीते दशकों के दौरान सबसे तेज प्रगति दर्ज की है।कई जानकार इसे एक चमत्कार की तरह देखते हैं।

विश्व बैंक की नीतियों से प्रभावित विकास अनुसंधानों में मुख्य रूप से माप योग्य संकेतकों पर ही ध्यान दिया जाता है और उनके पीछे चल रही प्रक्रियाओं पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता। इस लिहाज से दो राजनीतिक-आर्थिक प्रक्रियाएं और उनके वैचारिक प्रभाव महत्वपूर्ण हो जाते हैं जिनसे बांगलादेश और पश्चिम बंगाल के विकास की प्रक्रिया में भी फर्क दिखाई देने लगता है। पहली बात है वैश्विक अर्थव्यवस्था से संपर्क कैसा है। बांगलादेश को दूसरे देशों में काम करने वाले अपने नागरिकों से 16.9 अरब डॉलर की आमदनी हुई है। बांगलादेश का 80 प्रतिशत निर्यात कपड़ा उद्योग में केंद्रित है। 30 अरब डॉलर का यह उद्योग बांगलादेश की अर्थव्यवस्था में लगभग 10 प्रतिशत हैसियत रखता है और यह वैश्विक आपूर्ति शृंखला से जुड़ा हुआ है जिस पर उन्नत बहुराष्ट्रीय निगमों का दबदबा है। बांगलादेशी परिधान उद्योग की सफलता महिलाओं की सस्ती मजदूरी का नतीजा है। बांगलादेशी फैक्टरी मालिक इन वैश्विक शृंखलाओं में निचले दर्जे के हिस्सेदार के रूप में काम कर रहे हैं। पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियां केवल कपड़ों के डिजाइन और मार्केटिंग पर नियंत्रण रखती हैं बल्कि समूची आपूर्ति शृंखला पर भी कब्जा जमाए रखती हैं और बांगलादेशी मजदूरों की मेहनत से पैदा होने वाले कुल मुनाफे में से एक बड़ा हिस्सा अपनी जेब में डाल लेती हैं।

बांगलादेश के इसी कपड़ा उद्योग में दिसंबर 2018 में अधिकृत मासिक न्यूनतम मजदूरी 5300 टका (63 डॉलर) प्रतिमाह थी। यदि विश्व बैंक की 3 डॉलर प्रतिदिन की व्यय सीमा को देखें तो पता चलता है कि बांगलादेश के परिधान उद्योग में मजदूरों को जो तनख्वाह मिल रही है वह गरीबी की विश्व बैंक द्वारा तय की गई सीमा से भी कम तनख्वाह है। यहां काम की पाली आज भी 12 घंटे से 16 घंटे तक चलती है। याद करें कि 2011 में कुख्यात राणा प्लाजा में जो आग लगी थी उसमें 1100 मजदूर जल कर मर गए थे। लंबे समय तक चले विरोध और वार्ताओं के बाद आखिरकार 2019 में सरकार ने अधिकृत न्यूनतम मजदूरी की दर बढ़ा कर 8000 टका (95 डॉलर) कर दी है। जब समझौते के बावजूद मालिकों ने मजदूरों को इस दर पर तनख्वाह देने से इंकार कर दिया तो मजदूरों को फिर से हड़ताल पर जाना पड़ा। इसके जवाब में फैक्टरी मालिकों ने मजदूरों की सामूहिक छंटनी करना शुरू कर दिया। ट्रेड यूनियन कार्यकत्र्ताओं और नेताओं को आतंकित करने के लिए सरकार ने अपनी पुलिस और जासूसों और मुखबिरों को उनके पीछे छोड़ दिया।

बांगलादेश के सामाजिक विकास का एक और अहम पहलू ये है कि यहां गरीबों को मिलने वाली मूलभूत सेवाओं की डिलीवरी में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका बहुत बड़ी है। इस एनजीओ सेक्टर की जड़ें बांगलादेशी समाज में मौजूद सामाजिक जागरूकता और सामुदायिक सांगठनिकता की क्षमता में ढूंढी जा सकती हैं। गैर-सरकारी क्षेत्र में अब अपनी एक गतिकी पैदा हो चुकी है और उसमें आंतरिक स्थिरता और विकास की प्रक्रियाएं चल निकली हैं। सूक्ष्म ऋण आंदोलन का सूत्रपात करने वाला ग्रामीण बैंक केवल बांगलादेश में बल्कि दुनिया भर में एक उदाहरण बन चुका है। मगर यह बांगलादेश का सबसे बड़ा एनजीओ नहीं है। बांगलादेश का सबसे बड़ा एनजीओ बीआरएसी (ब्रेक) है जिसे बांगलादेश ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे बड़े गैर-सरकारी संगठनों में शुमार किया जाता है। यह संगठन सूक्ष्म वित्त, रीटेल और कृषि व्यवसाय, प्रकाशन और औपचारिक गैर-औपचारिक शिक्षा जैसे विविध क्षेत्रों में काम कर रहा है।

2017 में ब्रेक ने बांगलादेश के 71 लाख ग्राहकों को लगभग 4 अरब डॉलर के ऋण दिए और उसे अपने सूक्ष्म वित्त व्यवसाय से 55 करोड़ डॉलर से ज्यादा आमदनी हुई थी। 2018 में उसकी कुल आमदनी 94 करोड़ डॉलर से ज्यादा थी। इसमें 1,00,000 से ज्यादा लोग काम करते हैं और इसकी गतिविधियां 14 देश में फैली हुई हैं।

ज्यादातर देशों में आम लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी उत्पादक संसाधन सेवाएं या तो बाजार के जरिए मिलती हैं या सरकारी कल्याणकारी योजनाओं कार्यक्रमों के माध्यम से मिलती हैं। बांगलादेश के गरीबों को ये सुविधाएं अधिकांशतः एनजीओ संगठनों से मिलती हैं। इन गैर-सरकारी संगठनों के फैलाव की स्थिति ये है कि इन जिम्मेदारियों से राज्य को लगभग आजाद कर दिया गया है और इस तरह गरीबों की सामाजिक एजेंसी यानी परिवर्तन की क्षमता को अराजनीतिक बना दिया गया है।

बांगलादेश की ये दोनों खासियतें पश्चिमी बंगाल में दिखाई नहीं देतीं। पश्चिम बंगाल का वैश्विक अर्थव्यवस्था से संपर्क बहुत मामूली है। 2017 में उसे तनख्वाहों के रूप में दूसरे देशों से केवल 1.8 अरब डॉलर मिले थे जो बांगलादेश की विदेशी आय का सिर्फ पांचवां हिस्सा बैठता है। वाम मोर्चा सरकार और बाद में तृणमूल कांग्रेस सरकार, दोनों ही पिछले नौ साल के दौरान एक ऐसी अभिशासन व्यवस्था पर चलते रहे हैं जो सत्ताधारी राजनीतिक दल के लिए अनुकूल होती है। इस तरह की अभिशासन संस्थान के लिए पार्था चटर्जी नेराजनीतिक समाजशब्द का इस्तेमाल किया है। लिहाजा, यहां गैर-सरकारी संगठनों के लिए वैसी गुंजाइश दिखाई नहीं देती जैसी बांगलादेश में दिखाई देती है।

वामपंथी दलों के जनाधार के तेजी से बिखरने की वजह से भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति के फैलाव का भी रास्ता खुल गया है जो अब राज्य में दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बन गई है। अगर भाजपा को यहां की सत्ता मिलती है तो उसका धर्म आधारित हिंसक बहुलवाद पश्चिम बंगाल को कमोबेश उसी स्थिति में पहुंचा देगा जिस स्थिति को जनरल ज़िया और इरशाद के जमाने में बांगलादेश को झेलना पड़ा था।

पंजाब का विभाजन और उसके बाद

विभाजन से पहले का पंजाब


ब्रिटिश भारत का पंजाब प्रांत 1947 से पहले देश के सबसे बड़े प्रांतों में गिना जाता था। यह पूर्वोत्तर छोर पर तक्षशिला से दक्षिण-पूर्व में दिल्ली की सीमा तक 1000 किलोमीटर लंबा था। ज्यादातर लोग हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों के दक्षिण में स्थित जलोड़ पट्टी में रहते थे। हरियाणा तथा बहावलपुर के कई इलाकों सहित दक्षिण की तरफ पड़ने वाले अर्द्धशुष्क और शुष्क इलाके भी इसी प्रांत का हिस्सा थे। ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में जोड़ा गया यह सबसे नया प्रांत था और 1857 की बगावत के बाद यहां से ब्रिटिश भारतीय फौज में बड़ी तादाद में सिपाही जाते थे। सिंचाई से बेहतर राजस्व की संभावना को देखते हुए औपनिवेशिक शासन ने इस प्रांत में सिंचाई के लिए नहरों का जाल तैयार करने में भी भारी पैमाने पर निवेश किया। प्रांत के दक्षिण-पश्चिम में स्थित अर्द्धशुष्क इलाकों को इससे भारी फायदा हुआ। 1920 के दशक तक आते-आते औपनिवेशिक शासन का सिंचाई कार्यों में खर्च होने वाली राशि का 40 प्रतिशत केवल पंजाब पर खर्च हो रहा था। इसी का फल था कि भारत की कुल सिंचाईयुक्त खेती का 50 प्रतिशत हिस्सा पंजाब प्रांत में पड़ता था। प्रांत के उत्तर में स्थित घनी आबादी वाले इलाकों में रहने वाले किसानों को जमीनें दी गईं ताकि वे नई बसाई जा रही नहर कालोनियों में जाकर रहने लगें। शहीद भगतसिंह के पुरखों को भी इसी तरह बसाया गया था और वे अमृतसर के पास स्थित माझा इलाके से आकर बसे थे। पंजाब के काश्तकार आजीविका स्तर पर जीवनयापन कर रहे थे मगर फिर भी देश के दूसरे भागों के मुकाबले यह प्रांत तुलनात्मक रूप से संपन्न दिखाई पड़ता था। पंजाब की राजधानी लाहौर थी जो कि उत्तर भारत का सबसे बड़ा शहर था।

विभाजन ने समाज, अर्थव्यवस्था और पूरे प्रांत की राजनीति को बांट डाला था। मगर विभाजन के बाद दोनों तरफ तरक्की की रफ्तार थोड़े ही समय में फिर से बहाल हो गई। अंतर्राष्ट्रीय सीमा ने एक पेचीदा स्थिति पैदा कर दी थी। नहरों से सींचे जाने वाले इलाके पाकिस्तान में थे जबकि ज्यादातर नहरें भारत के हिस्से में आए पंजाब से निकालती थीं। दोनों देशों की सरकारों ने 1960 में इंडस वाटर ट्रीटी (सिंधु जल समझौता) पर दस्तखत करके अपनी परिपक्वता के परिचय दिया। इस संधि के फलस्वरूप दोनों देशों में बड़े-बड़े बांध बनाए गए ताकि सिंचाई और जल विद्युत के लिए नदी के पानी को सुरक्षित रखा जा सके। भारत ने भाखड़ा और पोंग में बांध बनाए। भाखड़ा बांध की भंडार क्षमता 9.3 घन किलोमीटर है जबकि पोंग बांध की क्षमता 8.5 घन किलोमीटर है। पाकिस्तान ने तरबेला और मंगला में इससे भी बड़े बांध बना दिए। सिंधु नदी पर बनाए गए तरबेला बांध की भंडार क्षमता 12 घन किलोमीटर है जबकि झेलम पर बनाए गए मंगला बांध की भंडार क्षमता 10 घन किलोमीटर है। सीमा के दोनों तरफ का पंजाब दक्षिण एशिया में सबसे सघन सिंचाई वाला इलाका है। पाकिस्तानी पंजाब के सिंचाईयुक्त इलाके दुनिया में सबसे ज्यादा लंबे सिंचाईयुक्त इलाकों में गिना जाता है।

धार्मिक मतभेदों के बावजूद सीमा के दोनों तरफ के लोग एक ही भाषा बोलते हैं, उनके खान-पान की आदतें एक जैसी हैं। उनके कुनबे-कुटुंब के नाम एक से हैं और यहां तक कि दोनों तरफ के लोग अपनी खातिरदारी और मेजबानी की दुहाई भी देते हैं। मगर, विभाजन के बाद दोनों पंजाबों की स्थिति दोनों नवस्वाधीन देशों के विकास की स्थिति से गहरे तौर पर गुंथी रही है। इसी के चलते दोनों पंजाबों के बीच सामाजिक-आर्थिक स्तर पर गहरे फर्क भी दिखाई देने लगे हैं। पाकिस्तान के 11 करोड़ से ज्यादा लोग यानी देश की आधी से ज्यादा आबादी पाकिस्तानी पंजाब प्रांत में रहती है। अर्थव्यवस्था में उसका हिस्सा 55 प्रतिशत है और देश के मुख्य औद्योगिक केंद्र भी पंजाब में हैं। 60 प्रतिशत से ज्यादा औद्योगिक उत्पादन, 40 प्रतिशत से ज्यादा कृषि उपज और 55 प्रतिशत सेवाएं इसी प्रांत से पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को मिलती हैं। पंजाब की राजधानी लाहौर ही देश का सांस्कृतिक और शैक्षिक केंद्र भी है।

इस प्रांत की औपनिवेशिक सीमाओं को यथावत रखा गया है जिसकी वजह से यहां बहुत सारे दूसरे नृजातीय एवं भाषायी समुदाय भी रहते हैं। पंजाब की आबादी में पंजाबी बोलने वालों की संख्या 75 प्रतिशत के आसपास है। 17 प्रतिशत से ज्यादा लोग सरियाकी बोलते हैं जो दक्षिण में सिंध प्रांत से सटे सीमाई इलाके की भाषा है। बहुत सारे लोग उर्दू भी बोलते हैं औरा उससे भी ज्यादा लोग उर्दू समझते हैं। निस्संदेह इस विविधता से प्रांत की सांस्कृतिक सजीवता बढ़ती है।

पाकिस्तानी पंजाब की यह विविधता आंतरिक उपक्षेत्रीय और ग्रामीण-शहरी फर्क में भी दिखाई पड़ती है। भारतीय पंजाब से सटे सरहदी उत्तर-पूर्वी जिले और जम्मू-कश्मीर से सटे सरहदी उत्तर-पूर्वी जिले दक्षिण-पश्चिम के जिलों के मुकाबले ज्यादा तरक्कीयाफ्ता और खुशहाल दिखाई देते हैं। गरीबों की संख्या के बारे में किए गए एक अनुमान (पंजाब इकाॅनाॅमिक रिपोर्ट 2017, पीईआरआई, लाहौर) के मुताबिक 2015 में प्रांत की गरीबी दर 15 प्रतिशत थी। मगर, राजनपुरा और डेरा गाजी खान जिलों में गरीबी 50 प्रतिशत से ज्यादा थी। इसी रिपोर्ट में प्रांत की शहरी गरीबी 4.7 प्रतिशत बताई गई थी जबकि ग्रामीण गरीबी इससे पांच गुना से भी अधिक यानी 25 प्रतिशत के आसपास बताई गई थी। इस उपक्षेत्रीय और ग्रामीण-शहरी असमानता से शिशु मृत्यु दर (आईएमआर, यानी प्रति 1000 जीवित प्रसवों पर मृत्यु की संख्या) जैसे आंकड़ों पर भी फर्क पड़ता है। शिशु मृत्यु दर पर तंगहाली और गरीबी से सीधा असर पड़ता है। पाकिस्तान डेमोग्राफिक हेल्थ सर्वे 2017-18 के अनुसार प्रांत की शिशु मृत्यु दर 73 थी जो देश भर में सबसे ऊंची थी। पाकिस्तान में कृषि क्षेत्र भारी असमानता का शिकार है जिसकी वजह से गांवों में गरीबी बहुत बड़े पैमाने पर दिखाई देती है। 2002 की कृषि जनगणना के अनुसार देश के 63 प्रतिशत ग्रामीण परिवार भूमिहीन थे। भूस्वामियों में 5 एकड़ से कम मिल्कीयत वाले परिवारों की संख्या 61 प्रतिशत थी मगर उनके हिस्से में आने वाला कुल रकबा सिर्फ 15 प्रतिशत था। 50 एकड़ या इससे अधिक रकबे वाले परिवारों की संख्या केवल 2 प्रतिशत थी मगर उनका कुल रकबा 30 प्रतिशत से ज्यादा था।

निम्नलिखित टेबल में दोनों  पंजाब के कुछ सामाजिक एवं आर्थिक संकेतकों की स्थिति देखी जा सकती है।

 

 

पंजाब (पाकिस्तान)

पंजाब (भारत)

क्षेत्रफल (किलोमीटर)

2,05,000

 

50,300

 

जनसंख्या (करोड़)

11 (2017est)

2.8

जीडीपी (अरब डॉलर)

173 (2017est)

84(2019est)

प्रति व्यक्ति आय

5488 (2019est)

8520(2017est)

साक्षरता दर

73%

77%(2011)

औसत उम्र (वर्ष)

73.4

71.6(2010-14)

शिशु मृत्यु दर (प्रति 1000 पर)½

73(2017)

21(2017)

प्रसूता मृत्यु दर (प्रति 1000 पर)

277(2010)

122 (2014-16)

प्रजनन दर

3.4(2017)

1.7(2018)

 

भारत में पड़ने वाला मौजूदा पंजाब पाकिस्तानी पंजाब के मुकाबले सिर्फ एक चैथाई बैठता है। आबादी के लिहाज से भी उसकी यही स्थिति है। भारत में इसका राष्ट्रीय महत्व वैसा नहीं है क्योंकि यह एक बहुत बड़े देश का हिस्सा है। जब अकालियों ने भाषा के आधार पर देश के दूसरे भागों के विभाजन को देखते हुए पंजाबी सूबे के गठन की मांग की तो 1966 में हरियाणा, कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल और स्पीति इलाकों को पंजाब से अलग कर दिया गया। 1980 और 1990 के दशकों में पंजाब पुलिस और खालिस्तानी उग्रवादियों के हाथों एक दशक से भी ज्यादा समय तक बड़े पैमाने पर हिंसा का शिकार होता रहा।

भारत के कुल क्षेत्रफल में पंजाब का हिस्सा मात्र 1.5 प्रतिशत बैठता है मगर देश के अनाज उत्पादन में उसका हिस्सा 12 प्रतिशत है और बढ़िया किस्म की कपास का 25 प्रतिशत हिस्सा यहीं पैदा किया जाता है। पंजाब में गेहूं की उपज 5 टन प्रति हैक्टेयर है जो केवल दक्षिण एशिया में सबसे अधिक है बल्कि दुनिया भर के सबसे ऊंची उपज वाले इलाकों में गिनी जाती है। पंजाब में खेती से जुड़ी सभी तरह की मशीनों का उत्पादन किया जाता है जिसकी वजह से खेती की तमाम तकनीकी जरूरतें यहीं से पूरी कर ली जाती हैं। मगर, पंजाब औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में अभी पीछे है। प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज से 2018 में भारत के राज्यों में उसका 15वां स्थान था जबकि पहले वह शीर्ष तीन स्थानों में होता था।

सामाजिक और मानव विकास के लिहाज से दोनों पंजाब अपने-अपने देशों में लगभग शीर्ष पर दिखाई देते हैं। 2017 में मानव विकास सूचकांक (एचडी) के हिसाब से भारतीय राज्यों में भारतीय पंजाब तीसरे स्थान पर था जबकि कई दूसरे राज्यों की प्रति व्यक्ति आय पंजाब से ज्यादा है। यहां पुरुषों की औसत आयु 70 साल और महिलाओं की औसत आयु 73 साल के आसपास है जो राष्ट्रीय औसत से लगभग 3 साल अधिक है। मगर यहां की साक्षरता दर 77 प्रतिशत है (वर्ष 2011 में) जो कई बहुत सारे दूसरे राज्यों से पीछे है। साक्षरता के मामले में केरल (94 प्रतिशत) और महाराष्ट्र (83 प्रतिशत) पंजाब से काफी आगे हैं। 2017 में पंजाब में शिशु मृत्युदर 21 थी और यह भी केरल से बहुत ज्यादा है जहां शिशु मृत्यु दर केवल 10 रह गई है।

आर्थिक और सामाजिक संकेतकों के लिहाज से भारतीय पंजाब पाकिस्तानी पंजाब के मुकाबले बेहतर दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, 2017 में उसकी प्रति व्यक्ति आय (8,520 डॉलर) और गेहूं की उपज (4.7 टन प्रति हैक्टेयर) पाकिस्तानी पंजाब की प्रति व्यक्ति आय (5,488 डॉलर) और उपज (3.1 टन प्रति हैक्टेयर) से लगभग 50 प्रतिशत अधिक थी। यहां शिशु मुत्यु दर पाकिस्तानी पंजाब के मुकाबले सिर्फ एक तिहाई है और लोगों की औसत उम्र पाकिस्तानी पंजाब से तीन साल अधिक है। पाकिस्तानी पंजाब के ग्रामीण और दक्षिण पश्चिमी भागों में जैसी गरीबी दिखाई देती है वह भारतीय पंजाब में दिखाई नहीं देती। लैंगिक अनुपात के मामले में पाकिस्तानी पंजाब की स्थिति भारतीय पंजाब के मुकाबले बहुत बढ़िया दिखाई देती है। गौर करें कि भारतीय पंजाब में प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या गिरते-गिरते 890 के भयावह स्तर पर पहुंच गई है जबकि पाकिस्तानी पंजाब में प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 966  है।

ये सारी तुलनाएं करते हुए हमें पाकिस्तानी पंजाब में मौजूद जबर्दस्त विविधता को ध्यान में रखना चाहिए। उसके गरीब और अल्पविकसित दक्षिण पश्चिमी जिलों की वजह से पूरे प्रांत की औसत कमजोर हो जाती है। आर्थिक कसौटियों में बहुत सारे फर्क ऐतिहासिक कारणों से भी देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, 1960 में भारतीय पंजाब में गेहूं की उपज पाकिस्तानी पंजाब की गेहूं की उपज से लगभग 40 प्रतिशत अधिक थी (1.2 टन प्रति हैक्टेयर बनाम 0.86 टन प्रति हैक्टेयर) फिर भी, ऐसा लगता है कि पाकिस्तानी पंजाब अपनी सामंती पृष्ठभूमि से छुटकारा नहीं पा सका है और उसकी सरकारी नीतियों से भी ग्रामीण गरीबी पर अंकुश लगाने में कोई खास कामयाबी नहीं मिल पाई है। भारतीय पंजाब इन दोनों मोर्चों पर कामयाब दिखाई देता है हालांकि यहां लैंगिक अनुपात की स्थिति निश्चित रूप से चिंताजनक है।


संजय कुमार सेंट स्टीफ्न्स कालेज, दिल्ली में भौतिकी पढाते हैं। 

अनुवाद  : योगेन्द्र दत्त