दक्षिण एशिया की वर्तमान विविधताओं के पीछे हजारों साल के अन्तर्गुम्फित इतिहास है। इसका वर्तमान सहस्राब्दियों के प्रवसनों और व्यापार, मिथकों, भाषाओं, और तकनालॉजी के आदान प्रदान तथा सैन्य हमलों व राज्य की संस्थाओं का फ़ल है। ये प्रक्रियाएं हमारे समय में भी जारी हैं। हालांकि इसका एक प्रतिरोधी तथ्य यह भी है कि आज की लोक कल्पनाओं में दक्षिण एशिया की स्पष्ट छवि बहुत कम दिखाई देती है। दक्षिण एशिया के विचार को क्षेत्र के राष्ट्र राज्यों ने क्षत विक्षत कर दिया है। यहां के इन्सानों तथा भूगोल को राष्ट्रीय सीमाओं में बांध दिया गया है।
हर चौथा मनुष्य दक्षिण एशिया में रहता है। उत्तर में
हिन्दुकुश व हिमालय तथा दक्षिण में हिन्द महासागर के द्वीपों तक भौगोलिक रूप से
गठे हुए इस क्षेत्र में मानव जीवन व संस्कृति की सबसे अधिक विविधता देखने को मिलती
है। एक फ्रैक्टल डिज़ाइन की तरह दक्षिण एशिया में संस्कृतियों व भाषाओं की विविधता बड़ी क्षेत्रीय पहचानों से लेकर उप उप स्थानीय
संस्कृतियों में दिखती है। पश्तो व दरि के अलावा, जो कि अफ़गानिस्तान की आम बोलचाल की भाषाएं हैं, वहां पर 40% अन्य भाषाओं का चलन है। 2011 की जनगणना में
नेपाल में 100 से अधिक भाषाएँ गिनी गयीं थीं। यहां तक कि भाषा के हिसाब से सबसे
एकरूपी देश बांग्लादेश में जहां 98% लोग बांग्ला बोलते हैं, 28 अन्य भाषाएँ बोली जाती हैं। स्थानीय संस्कृतियों की
वर्तमान पच्चीकारी के पीछे लम्बे इतिहास काल की गतिविधियाँ हैं, जिनकी नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ में
व्याख्या पुरातन पांडुलिपियों के पैलिम्प्सेस्ट की एक के ऊपर एक लिखावट के रूप में
की थी।
दक्षिण एशिया की वर्तमान विविधताओं के पीछे हजारों साल
के अन्तर्गुम्फित इतिहास है। इसका वर्तमान सहस्राब्दियों
के प्रवसनों और व्यापार,
मिथकों, भाषाओं, और
तकनालॉजी के आदान प्रदान तथा सैन्य हमलों व राज्य की संस्थाओं का फ़ल है। ये
प्रक्रियाएं हमारे समय में भी जारी हैं। हालांकि इसका एक प्रतिरोधी तथ्य यह भी है
कि आज की लोक कल्पनाओं में दक्षिण एशिया की स्पष्ट छवि बहुत कम दिखाई देती है।
दक्षिण एशिया के विचार को क्षेत्र के राष्ट्र राज्यों ने क्षत विक्षत कर दिया है।
यहां के इन्सानों तथा भूगोल को राष्ट्रीय सीमाओं में बांध दिया गया है। दो सबसे बडे राष्ट्रों भारत व पाकिस्तान का जन्म सन 47
के विभाजन के खून खराबे में हुआ था। इसमें दक्षिण एशिया के दूसरे तथा तीसरे सबसे
बड़े भाषाई व सांस्कृतिक समुदायों, यानि
बंगाल व पंजाब को अलग अलग हिस्सों में बांट दिया गया था। भारतीय राष्ट्र राज्य 'बड़े भाई’ के
सिनड्रोम से पीड़ित है, तथा इसके लगभग सभी पड़ोसी देशों से सम्बन्धों में तनातनी
है। बांग्लादेश की मुक्ति से पहले यहां को लोगों को पश्चिमी पाकिस्तान के जनरलों
के हाथों कत्लेआम झेलना पड़ा था। श्री लंका में इतिहास के सबसे लम्बे व हिंसक गृह
युद्ध के परिणाम आज भी विद्यमान हैं। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत नये प्रकार के
आक्रामक बहुलतावादों की सफलताओं से हुई है। हर देश में अल्पसंख्यकों तथा अप्रवासियों
को शक की नजर से देखा जाता है। राष्ट्रीय पूर्वाग्रह लोगों को दूसरे देशों के बारे
में मौलिक तथ्य समझने से भी वंचित रखते हैं।
इस मुश्किल समय के बावजूद दक्षिण एशिया के सभी देशों में
पर्याप्त संख्या में सामान्य लोग व संगठन हैं जिनकी स्पष्ट समझ है कि सबके बेहतर
भविष्य का रास्ता एक दूसरे की वास्तविकताओं, सांझे
इतिहासों व परस्पर जुड़े हुए वर्तमानों को जानकर ही आगे जाता है। हमें अन्य दक्षिण
एशियाइयों को बिना राष्ट्रीय चश्मों के, जैसे
वे हैं वैसे देखना सीखना है। और तब हम देखेंगे कि हम एक दूसरे से काफी कुछ सीख
सकते हैं। जैसे, बहुत अधिक सम्पन्न न होने के बावजूद श्री लंका ने मानव
विकास के उच्च स्तर को प्राप्त किया है। इस सफलता के पीछे क्या कारण हैं? इसी प्रकार, सन
1947 में धर्म के नाम पर बंटवारे के बावजूद बांग्लादेश द्वारा रवींद्रनाथ टैगोर की
रचना को अपना राष्ट्रीय गान चुनने के क्या कारण हो सकते हैं? ‘क्रिटीक’ पत्रिका का यह अंक इसी प्रकार के सरकारों से
प्रेरित है।
असलम ख्वाजा का लेख ‘पीपल्स मूवमेण्ट्स इन पाकिस्तान’ (पाकिस्तान में जन आन्दोलन) हमारे पश्चिमी पड़ोसी देश में
हाल के वर्षों के आन्दोलनों की तस्वीर प्रस्तुत करता है। लगातार मजबूत होता महिला
आन्दोलन तथा अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिये मुहिम महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये
हमारे देश में पाकिस्तान की आम छवि को चुनौती देते हैं। ससांका पेरेरा से
साक्षात्कार श्री लंका के आंतरिक सामाजिक विकास तथा वहां पर भारत की छवि का अवलोकन
है। वो वहां पर सार्वजनिक मुफ्त शिक्षा पर प्रकाश डालते हैं जिसके बलबूते श्री
लंका उपमहाद्वीप में सबसे बेहतर सामाजिक विकास प्राप्त करने में सफल रहा है। रतन
कुमार राय का लेख बांग्लादेश में हाल के समय में युवा विरोध प्रदर्शनों में सजीव
सांस्कृतिक उपायों तथा डिजिटल सोशल मीडिया के नायाब प्रयोग पर प्रकाश डालता है।
अनुज गोयल तथा संजय कुमार अपने लेख में दक्षिण एशिया के भिन्न देशों में सामाजिक
विकास की स्थिति की चर्चा करते
हैं। उनके तुल्नात्मक विश्लेषण से एक रोचक तथ्य उभरता है। हिन्दुस्तान व पाकिस्तान, जिनकी आंतरिक राजनीति में दक्षिण पंथ की ओर झुकाव दिखता
है, सामाजिक विकास के स्वास्थ्य व महिला सम्बन्धी मानकों में
कम सम्पन्न बांग्लादेश व नेपाल से काफी पीछे हैं। जावेद अनीस का लेख विभाजित
उपमहाद्वीप का सांझापन पाकिस्तान में दक्षिण एशिया के इतिहास के पॉपुलर नायकों
जैसे भगत सिंह को पुनर्जीवित करने की कोशिशों की चर्चा करता है। ये प्रयास राज्य
द्वारा धर्म के आधार पर इतिहास के पुनर्लेखन को चुनौती देते हैं। प्रमिता मिश्रा
का लेख 'ऊत्सरोति आलो’ विभाजित
बंगाल के दोनों ओर रवींद्रनाथ टैगोर की निरंतर सार्थकता का वर्णन करता है। अनुज
गोयल अपने लेख ‘कोक स्टुडियो पाकिस्तान: राष्ट्र व राष्ट्र के परे’ में दिल्ली के युवाओं में इस चैनल की लोकप्रियता की
चर्चा करते हैं, किस प्रकार संगीत प्रेम व डिजिटल तकनालॉजी राष्ट्रीय
वैमनस्य से ऊपर उठाते हैं। संजय कुमार का लेख 'विभाजित बंगाल व पंजाब में मानव विकास का इतिहास’ में दक्षिण एशिया के इन दो प्रान्तों में सामाजिक विकास
की प्रक्रिया में समानताओं व भिन्नताओं का अवलोकन करते हैं, जिनका सन १९४७ में विभाजन कर दिया गया था। सौरभ वर्मा का
लेख 'राहुल सांकृत्यायन की घुमक्कड़ी : दक्षिण एशिया के संदर्भ
में’ यायावरी की कला पर टीका है जिसे सांकृत्यायन ने अपनी
अनन्य यात्राओं में विकसित किया। सांकृत्यायन के लिये यात्रा मात्र अनुभव ही नहीं
था बल्कि अलग संस्कृतियों के ज्ञान का स्रोत था, जिसके लिये विचारों का स्वतंत्र आदान प्रदान आवश्यक था।
इस प्रकार घुमक्कड़ी सभी प्रकार के सांस्कृतिक रूढिवाद का इलाज है।
इस अंक के अन्य लेख नव उदारवाद के अंतर्गत उच्च शिक्षा
के बारे में हैं। दिल्ली विश्विद्यालय के एड होक शिक्षक साल के शुरुआत में दो महीने
तक हड़ताल पर थे। विश्विद्यालय के कॉलेजों के 40 से 50 प्रतिशत तक शिक्षक एड होक
हैं। इन लोगों को चार महीने के कन्ट्रेक्ट पर नियुक्त किया जाता है, लेकिन वर्षों से ये इनकी स्थिति यही बनी हुई है। ये
शिक्षक अपनी संख्या व सर्विस कण्डीशन के बनिस्पत पढ़ाने व प्रशासन का कहीं अधिक
बोझ ढोते हैं। जब यूनिवर्सिटी ने उन्हें और निचोड्ने की सोची तथा उन्हें ठेके के ‘गेस्ट लेक्चरर’ बनाना
चाहा तो पानी हद से गुजर गया। कमलो कान्तो राऊल का लेख ‘प्रोटेस्ट एट ए कोलोनियल साईट’ (एक औपनिवेशिक स्थान पर विरोध प्रदर्शन) आन्दोलन के
शुरुआती दिनों का वर्णन है जब पुलिस के बेरिकेडों को तोड़ कर शिक्षकों ने उप कुलपति
के कार्यालय का कब्जा कर लिया था। देविका मित्तल का लेख ‘वी एड होक टीचर्स’ (हम एड होक शिक्षक) इन शिक्षकों के काम की परिस्थितियों का
भीतरी वर्णन है। यतेन्द्र का लेख ‘स्ट्क
बेटवीन त्रिशंकु एन्ड सिसीफस’ (त्रिशंकु
व सिसीफस के बीच अटका हुआ) देश के निजी इन्जीनियरिंग कॉलेजों की अनर्थकताओं को
दिखाता है। यह भी एक भीतरी वर्णन है। अगर ये लेख हिन्दुस्तान की उच्च शिक्षा की
हाल की स्थिति पर केन्द्रित हैं तो अर्चिश्मान राजू का लेख संयुक्त राज्य में उच्च
शिक्षा के इतिहास व वर्तमान पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी है। अश्वेत कलाकार जेम्स
बाल्ड्विन के पैने अवलोकनों के सहारे अर्चिश्मान दिखाते हैं कि संयुक्त राज्य में
एकेडीमिया श्वेत उत्तमता के नज़रिये से स्थापित किया गया था। आज के समय में यह
समाजिक अलगावपन का केन्द्र बन गया है।
अगर कई देशों में दक्षिणपंथी राजनीति मजबूत हो रही है, तो आम लोग इसका विरोध भी कर रहे हैं। कोरोना तालाबन्दी
से पहले चिली, ईक्वेडोर, बोलिविया
तथा लेबनान में दीर्घकलिक प्रदर्शन हो रहे थे। साम्राज्यवाद की एक अभिव्यक्ति यह
है कि विकासशील देशों के लोगों को दूसरे विकासशील देशों की घटनाओं की जानकारी
पश्चिमी पूंजीवादी देशों के संचार माध्यमों से ही मिलती है। इस प्रकार दूसरे देशों
के समाचार भी विचारधारा के वर्चस्व का साधन बन जाते हैं। उदाहरण के लिये 13
अक्तूबर 2019 को भारत के प्रतिष्ठित वेब पोर्ट्ल ‘द वायर’ की एक रपट में दावा किया
गया कि इक्वेडोर के मूल निवासियों के नेताओं ने 'ईंधन की कीमतों में वृद्धि के खिलाफ प्रदर्शनों को उकसाया था’ (अंग्रेजी से अनुवाद तथा जोर हमारा) । यह रिपोर्ट जर्मनी
के सरकारी समाचार चैनल डी ड्ब्लयू से ली गयी थी तथा सच्चाई से कोसों दूर थी।
‘क्रिटीक’ बहुत भाग्यशाली है कि कई विकासशील देशों में इसके मित्र हैं जो अपने
देशों की घटनाओं पर प्रासंगिक टीकायें लिखते रहे हैं। पिलार ट्रोया फर्नांडेज का
लेख 'इण्डेजनस एंड पीपुल्स रिवोल्ट इन इक्वेडोर’ वहां के प्रदर्शनों को आइ. एम. एफ. द्वारा लादी गयी
आर्थिक नीतियों तथा लोक राजनीति में आदिवासियों की बढ़ती केन्द्रीय भूमिका के
सन्दर्भ में
स्पष्ट करता है । ‘मेरे जैसे आदिवासियों के लिये ईवो मोरलेस के तख्ता
पलट का क्या महत्व है?’ निक एस्टे के अंग्रेजी लेख का अनुवाद है। जैसे कि शीर्षक
से स्पष्ट है बोलीविया में ईवो मोरालस की सफलता व अब उसके खिलाफ वहां के पूंजीवादी
व नस्ल्वादी कुलीन वर्गों द्वारा उसका तख्ता पलटने का अमरीकी महाद्वीपों में आदिवासियों के राजनीतिक दखल में विशेष भूमिका है।
‘क्रिटीक’ का यह अंक डिजिटल रूप में आ रहा है। यह
परिवर्तन कुछ समय से सोचा जा रहा था, लेकिन
कोरोना तालाबन्दी ने कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा। हमें आशा है कि पाठक इस परिवर्तन
को स्वीकार करेंगे। हम विशेष रूप से यह आशा भी करते हैं कि पत्रिका के डिजिटल रूप
की संभावनाओं के अनुरूप यह नये पाठकों तक पहुंचेगी तथा पाठकों तथा प्रकाशन के बीच
दोतरफा संवाद सुदृढ़ होगा ।