जावेद अनीस
विभाजन ने उपमहाद्वीप
के भविष्य को बदला साथ ही इसने इतिहास और विरासत को भी प्रभावित किया है. विभाजन
के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क दिया गया था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं, उनके रस्मो-रिवाज़, बोलचाल, इतिहास, रहने-सहने के तरीके सब अलग हैं इसलिए यह मुमकिन नहीं है
कि दोनों एक साथ रह सकें. लेकिन क्या
विभाजन
का उद्देश्य
पूरा
हुआ? यदि धर्म को एक तरफ़ रख दें तो हिंदुस्तान
के विभाजन का कोई खास आधार नजर नहीं आता. फिर हम यह भी देखते हैं कि विभाजन के 25
वर्षों के भीतर ही बांग्लादेश के आस्तित्व में आने के बाद धर्म के आधार पर दो राष्ट्र
का सिद्धांत सिर के बल उल्टा खड़ा हो जाता है. उपमहाद्वीप के विभाजन के बाद से अभी
तक के अनुभव बताते हैं कि दरअसल विभाजन कोई हल नहीं बल्कि खुद अपने आप में ही एक
समस्या साबित हुई है. आज जब हम भारत और पाकिस्तान में हो रही घटनाओं और विमर्श को
देखें तो विभाजन से पहले जो सवाल खड़े थे वे अभी भी बदस्तूर कायम हैं. विभाजन इनका
कोई हल पेश नहीं कर सका है बल्कि इससे मामला और पेचीदा हो गया है.
आज खूनी
बंटवारे के 72 साल पूरे हो गये हैं लेकिन ऐसा लगता है कि विभाजन का दौर अभी भी
जारी है. दो अलग मुल्क हो जाने के बावजूद सरहद पर
दोनों मुल्क भिड़े रहते हैं. आज हमारी सरहद
को दुनिया के सबसे संवेदनशील और खतरनाक सरहदों में गिना जाता है. अभी तक दोनों
मुल्कों के बीच चार बार जंग हो चुके हैं. हम अभी तक अपने
रोजी-रोटी का मसला भले ही हल ना कर पाए हों परन्तु इसी तना तनी में दोनों मुल्कों
ने एटमी हथियार जरूर विकसित कर लिये हैं. अलग हो जाने के
बावजूद दोनों ही मुल्क एक दूसरे के अंदरूनी सियासत में एक बड़ा मुद्दा बन के छाये
रहते हैं. यहां रह गये मुसलमानों के साथ करीब सात दशक गुजार देने के बाद अब भारत के बहुसंख्यक
दक्षिणपंथी इस बात को साबित करने में अपना पूरा जोर लगा रहे हैं कि विभाजन का फैसला सही था.
पाकिस्तानी ब्लॉगर फरहा लोधी खान लिखती हैं कि “मेरी बदकिस्मती है कि मुझसे मेरे हीरो छीन लिये गये, मेरे अदीब व शायर विवादास्पद बना दिये गये, मेरे धरती के रखवाले और उसकी हिफाज़त करने वाले मजहब और मसलक की लकीर खींच कर हम से दूर कर दिये गये और बाहर से ला ला कर जंगजू (लड़ाके) हमारे हीरो और मोहसिन बना दिये गये. यह वाकई नाइंसाफी है.
विरासत की तलाश
वे आजादी के ऐसे हीरो हैं जिनका जन्म भी पाकिस्तान में हुआ और मौत भी वहीं हुई. आज बड़ी संख्या में पाकिस्तानी यह कहते हुए मिल जायेंगें कि शहीद भगत सिंह सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के भी हीरो हैं …… 2019 में पाकिस्तान की सरकार ने भी भगत सिंह को महान क्रांतिकारी मानते हुए लाहौर शहर के उस शादमान चौक का नाम भगत सिंह के नाम पर रख दिया है जहां 23 मार्च 1931 को अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया था
शहीद भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन
के अध्यक्ष और वकील इम्तियाज राशिद कुरैशी द्वारा भारत और पाकिस्तान की सरकारों से
शहीद भगत सिंह को भारत रत्न और निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित करने की मांग की गयी
है. यही नहीं इम्तियाज राशिद कुरैशी द्वारा लाहौर उच्च न्यायालय में याचिका दायर
करते हुये मांग की गयी है कि शहीद भगत सिंह एक स्वतंत्रता सेनानी थे
जिन्होंने अविभाजित हिंदुस्तान
की आजादी के लिए संघर्ष किया था इसलिये ब्रितानी हुकूमत के पुलिस अधिकारी की हत्या
के मामले में उन्हें निर्दोष साबित किया जाये.
गैर-मुस्लिम, नास्तिक, वामपंथी
विचारों के करीब होने के बावजूद अगर अवाम के साथ पाकिस्तान की सत्ता प्रतिष्ठान भी
शहीद भगत सिंह को अपना नायक मानती हैं तो इसकी वजह शायद उनका पाकिस्तान की धरती से गहरा जुड़ाव और
उससे भी ज्यादा आज़ादी और विभाजन से बहुत पहले ही उनकी शहादत है, उस समय तक
पाकिस्तान का प्रस्ताव सामने नहीं आया था.
इसी तरह से सिंध में शहीद हेमू कालाणी
को भी बहुत इज्जत से याद किया जाता है. हेमू कालाणी को सिंध का भगत सिंह भी कहा
जाता है. उन्हें भी ब्रिटिश सरकार ने महज 19 साल की उम्र में फांसी के फंदे पर लटका
दिया था. पाकिस्तान के इस्टैब्लिशमेंट द्वारा हेमू कालाणी को हमेशा नजरअंदाज किया
जाता रहा है. इसलिये उनका नाम वहां के राष्ट्रीय नायकों की सूची से सिरे से गायब
है, यहां तक कि उनके नाम से कोई सड़क या चौराहा तक नहीं है. लेकिन वहां की जागरूक
अवाम उन्हें याद करती है और वे लोकस्मृति में भी जिन्दा हैं. शायद इसी वजह से साल
2009 में शहीद हेमू कालाणी की 67वीं बरसी के मौके पर सूबा सिंध की हुकुमत द्वारा
हैदराबाद स्थित सिंध म्यूजियम में शहीद हेमू कालाणी की एक तस्वीर वहां के
राष्ट्रीय नायकों की कतार में रखी गयी है.
इसी तरह से सिंध में शहीद हेमू कालाणी को भी बहुत इज्जत से याद किया जाता है. हेमू कालाणी को सिंध का भगत सिंह भी कहा जाता है. उन्हें भी ब्रिटिश सरकार ने महज 19 साल की उम्र में फांसी के फंदे पर लटका दिया था. ….. शायद इसी वजह से साल 2009 में शहीद हेमू कालाणी की 67वीं बरसी के मौके पर सूबा सिंध की हुकुमत द्वारा हैदराबाद स्थित सिंध म्यूजियम में शहीद हेमू कालाणी की एक तस्वीर वहां के राष्ट्रीय नायकों की कतार में रखी गयी है.
राजा दाहिर
सिंध पर शासन करने वाले कश्मीरी ब्राह्मण वंश के आखिरी शासक थे जिन्हें आठवीं
सदी में मोहम्मद बिन क़ासिम ने शिकस्त देकर सिंध में अपनी हुकूमत क़ायम की थी. साल
2019 में लाहौर में महान
शासक महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा लगाने के बाद से सिंध में भी राजा दाहिर को भी
सरकारी तौर पर नायक घोषित करने की मांग ने जोर पकड़ लिया है. लेकिन इस मामले में मुश्किल
ये है कि राजा दाहिर को अगर हीरो मान लिया जाता है तो फिर मोहम्मद बिन क़ासिम का क्या
होगा जिसने राजा दाहिर को पराजित करके मुसलमानों की हुकूमत कायम की थी. दरअसल
मोहम्मद बिन कासिम दो कौमों के सिद्धांत के बहुत करीब बैठते हैं इसलिये पाकिस्तान के पाठ्यक्रमों में मुहम्मद
बिन कासिम को नायक और राज दाहिर को खलनायक के तौर पर पेश किया जाता है लेकिन इसके
बावजूद भी पाकिस्तान राजा दाहिर से पूरी तरह से पीछा नहीं छुड़ा सका है. वहां सत्ता
प्रतिष्ठान और धार्मिक संगठन भले ही मोहम्मद बिन क़ासिम को अपना उद्धारक और इस्लामी नायक समझते हों
लेकिन धरती का बेटा होने की वजह से सिंध में राजा दाहिर की हैसियत भी कौमी हीरो से कम
नहीं हो सकी है. आम सिंधी दाहिर को ही अपना नायक मानता है. वहां अगर 'मोहम्मद बिन क़ासिम डे' मनाया जाता है तो 'राजा दाहिर दिवस' मनाने वाले लोग भी हैं. कट्टरपंथियों
के तमाम दबावों के बावजूद भी आज सिंध में कई ऐसे सांस्कृतिक संगठन सक्रिय हैं जो राजा दाहिर
पर अपना दावा जताते हैं.
इन हलचलों से पाकिस्तान के अपने
अतीत को लेकर ईमानदार होने और दोनों मुल्कों के साझेपन की दिशा में आगे बढ़ने की उम्मीद जगी है लेकिन इसमें एक बड़ी रुकावट भी है, हिन्दुस्तान में एक दूसरे तरह की हलचल देखने को मिल रही है
जो दो कौमों के नजरिये पहले से ज्यादा ताकतवर बना रही है. भारत में दक्षिणपंथियों
की हुकूमत विभाजन के तर्क को और नया और मजबूत आधार देने का काम बहुत तेजी से कर
रही है जिसका ताजा पड़ाव नागरिकता संशोधन क़ानून और एन.आर.सी. है. पाकिस्तान की तरह
भारत में भी ऐसे लोग बहुत मजबूत स्थिति में पहुंच चुके है जो राजा दाहिर जैसे
लोगों को सिर्फ हिन्दुओं के नायक के तौर पर पेश करते हैं.
हिंदी की मशहूर लेखिका कृष्णा सोबती ने कहा था कि “विभाजन को भूलना मुश्किल है, मगर
याद रखना खतरनाक”. दुर्भाग्य
से हमने दूसरा काम करना शुरू कर दिया है.
जावेद अनीस भोपाल में रहते हैं। सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर लेखन के अलावा वे स्थानीय जनवादी आन्दोलनों से भी
जुड़े हुए हैं।