सौरभ वर्मा
सांकृत्यायन समूची दुनिया को विभिन्नताओं के बावजूद एक धागे में पिरो देना चाहते थे। वह आत्मीयता के अनुभव की बाते करते हैं। किसी अन्य प्रदेश के भोजन, नृत्य, संगीत, भाषा से परिचय को वह आत्मीयता कहते थे, जो सभ्यताओं में गतिशीलता का कारण बनती है।
राहुल सांकृत्यायन का जन्म 1893 ई. उत्तरप्रदेश के जिला आजमगढ़ में हुआ तथा मृत्यु 1963 ई. में। सांकृत्यायन ने अपने जीवन काल में कयी छोटी बड़ी यात्राएं की। साथ ही
यायावरी को एक नई पहचान दी। यह लेख एक प्रयास है सांकृत्यायन को दक्षिण एशिया के
परिदृश्य में समायोजित करने का। ऐसा इसलिए कि दक्षिण एशिया की परिकल्पना में हम
जिस तरह से एकरूपता को खोज रहे हैं, सांकृत्यायन उसे सामाजिक रूप से प्रचलित रीति रिवाजों में खोजते थे।
सांकृत्यायन ने अपनी यात्राओं में नेपाल, श्री लंका, तिब्बत, कई यूरोपीय देश, विभाजन के पूर्व का
भारत तथा सोवियत संघ, ईरान इत्यादि देशों का भ्रमण किया और इन पर विस्तृत लेख लिखे हैं।
राहुल सांकृत्यायन की सही और वास्तविक समझ उनके यात्रा वृत्तांतों से होती
है। हिंदी जगत में और उससे बाहर भी सांकृत्यायन को जानने वालों की कमी नहीं
है। उत्तर प्रदेश से प्रारम्भ होकर जीवन उन्हें दुनिया के कई हिस्सों में लेकर
जाता है| इन यात्राओं में उनका विभिन्न संस्कृतियों, समुदायों, भाषाओं से सामना
होता है। हर कोश पर बदलती
बोलियाँ, खान-पान, बात व्यवहार और
उनका आपसी मेल-जोल, सांकृत्यायन के
लिए कहीं सवाल बनकर उभरता है तो उनका जवाब भी उन्हें इन्ही यात्राओं में मिलता है।
इस व्यापक समझ के विस्तार में विचारों के आदान प्रदान की स्वन्त्रता को
सांकृत्यायन ने बहुत महत्व दिया है। गंगा जमुनी तहजीब का विकास इसी वैचारिक
स्वन्त्रता का परिणाम था जिसका विकास
उत्तर भारत मे हुआ।
यात्राओं पर राहुल सांकृत्यायन ने बहुत विस्तृत लिखा है। उनकी पुस्तक
घुमक्कड़शास्त्र इसका एक बेजोड़ उदाहरण है। वे घुमक्कड़ी को एक शास्त्र की संज्ञा देते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने इस विषय पर बहस के लिए बड़े पंडितों धर्माधिकारियों को चुनौतियाँ भी दी थी। घुमक्कड़ी क्यों आवश्यक है? घुमक्कड़ के क्या उद्देश्य होने चाहिए? घुमक्कड़ को कौन-कौन सी सावधानियाँ बरतनी चाहिए? सांकृत्यायन लिखते हैं, घुमक्कड़ी वैचारिक स्वतंत्रता प्रदान करती है। आज के समय में जब सब क़ुछ स्वयं तक संकुचित होता जा रहा है और ज्ञान की
सीमाओं को निर्धारित किया जा रहा है, सांकृत्यायन हमारे लिए महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। महत्वपूर्ण हो जाते
हैं दिमागी गुलामी पर लिखे उनके लेख।
सांकृत्यायन कहते हैं कि वैचारिक स्वतंत्रता सभ्यताओं के विकास का कारण
होती है। एक घुमक्कड़ के पास वो सारे तरीके होते हैं जिससे वह किसी दूसरे समाज के
रीति-रिवाजों, ललित कलाओं इत्यादि
को बिना किसी झिझक के समझ सके और आगे चलकर दूसरों को समझा सके। हालांकि सांकृत्यायन इस बात को नकारते नहीं कि एक घुमक्कड़ के सामने ऐसे
मौके भी आएंगे जब किसी दूसरे परिवेश में जाने पर वहाँ के रहने वालों के व्यहवार
घुमक्कड़ को अटपटे मालूम होंगे। ऐसी परिस्थितियों में घुमक्कड़ को सोचना होगा कि उसके अपने भी कुछ व्यवहार
ऐसे होंगे जो उस समुदाय को अटपटे जान पड़ते होंगे। घुमक्कड़ को अपनी मानसिक संकीर्णता से उभरना
होगा, तभी वह सही मायनों में
घुमक्कड़ बन पाएगा और अपने उद्देश्य को पा सकेगा। सांकृत्यायन समूची दुनिया को विभिन्नताओं के बावजूद एक धागे में पिरो देना चाहते थे। वह आत्मीयता के अनुभव की बाते
करते हैं। किसी अन्य प्रदेश के भोजन, नृत्य, संगीत, भाषा से परिचय को वह
आत्मीयता कहते थे, जो सभ्यताओं में गतिशीलता का कारण बनती है।
फिर घुमक्कड़शास्र में वे आगे लिखते हैं कि भाषा की नासमझी किसी अन्य समाज
में प्रवेश के लिए प्रारंभिक समस्या हो सकती है, किन्तु अंतिम नहीं। घुमक्कड़ इसकी शुरुआत जन-कलाओं से कर सकता है। जिसकी पहुँच जन-मानस तक होती है। एक उदाहरण में कहे तो, कोई घुमक्कड़ बांसुरी की धुन से किसी जन-कला की नक़ल कर पूर्वी तिब्बत देश के
किसी सराय में जगह पा सकता है। उनके कामों में जन-कलाओं का उतना ही महत्त्व था जितना शास्त्रीय संगीतों का। बल्कि वे जन-कला को
बेहतर मानते थे। घुमक्कड़ के कई
उद्देश्यों में एक यह भी है कि वह जन कलाओं को उनका उचित सम्मान दे। 'अहिरी नृत्य' के बारे में, जो आज
शायद ही बचा हो, वे लिखते हैं कि अगर उन्हें नृत्य की जरा सी भी समझ होती तो वे उसे मरने
नहीं देते। फिर किन्नर देश के
नृत्य को बखानते कहते हैं कि उसकी सादगी
इतनी थी कि उसमें शामिल होने में कोई झिझक नहीं रहती।
किन्तु सांकृत्यायन घुमक्कड़ को यहीं तक सीमित रहने की हिदायत नहीं देते।
उन्होंने स्वयं कई भाषाएं सीखीं और कई विदेशी लेखकों की जीवनियों, कामों का हिंदी अनुवाद लिखा। अपनी यात्राओं में सांकृत्यायन ने ज्ञान पर
बहुत जोर दिया। ज्ञान जो उथला न
होकर नदी की तह तक जाता हो। वोल्गा से गंगा के द्वितीय संस्करण छपने पर उन्होंने प्रारम्भ में लिखा कि "लेखक की एक-एक कहानी के पीछे उस युग से सम्बद्ध वह भारी सामग्री है जो
दुनिया की कितनी ही भाषाओं, तुलनात्मक भाषा विज्ञान, मिट्टी, पत्थर, तांबे, पीतल, लोहे पर सांकेतिक व लिखित साहित्य अथवा अलिखित गीतों, कहानियों, रीति-रिवाजों, टोटके-टोनों में पाई जाती है।“
वह ज्ञान को अर्जित कर स्वयं तक सीमित रखने की बात नहीं करते थे।“भागो नहीं दुनिया
को बदलो” में वे लिखते हैं कि "इस पुस्तक की भाषा
का स्वरूप ऐसा हो जिससे दुखराम के सवाल साधारण किसानों की समझ में आ सके।” इसीलिये एक घुमक्कड़ के धर्म को अपनाते हुए इस पुस्तक को लिखने में पूर्वी
उत्तर प्रदेश में प्रचलित बोली का प्रयोग करते हैं।
सांकृत्यायन अलग- अलग समय मे भिन्न- भिन्न विषयों पर लिखते रहे। कभी ‘दिमागी गुलामी’ में हिन्दू धर्म में फैली कुरीतियों की आलोचना की तो कभी आज़ादी के आंदोलन में राष्ट्रवाद पर बढ़चढ़ कर लिखा। हिन्दू धर्म में फैली कई अवधारणाओं का विरोध किया जैसे समंदर पार की यात्रा
से धर्म खोने का डर होना। वहीं ज़मींदारी जैसी अन्यायप्रद प्रथा का भी अपने लेखों में विरोध किया।
हालांकि सांकृत्यायन के दर्शन शास्त्र एवं इतिहास के कामों में वह गहराई
नहीं थी जो अन्य लेखकों में थी। इस बात को लेकर
उनकी आलोचना भी हुई है। किन्तु सांकृत्यायन
को इस चश्मे से नहीं देखना चाहिए। सांकृत्यायन का मानना था कि उनके बाद की पीढ़ियाँ घुमक्कड़ी की परंपरा को आगे
बढ़ाएंगी, और उनके अधूरे तथा
उथले कामों को उनके अंजाम तक ले कर जायेंगी। वह एक शिक्षक के समान थे, जिनका काम मार्गदर्शन देना था।
भारत, तिब्बत, म्यांमार, लंका इत्यादि देशों
की अपनी विस्तृत यात्राओं में सांकृत्यायन ने यहां फैली जन-जातियों एवं घुमंतू
जातियों के साथ हुए वैचारिक आदान-प्रदान को अपनी लेखनी द्वारा जन-मानस तक पहुंचाने
का प्रयास किया। राजस्थान की
घुमक्कड़ जातियों - फिरकी वाले, बंजारे - जो व्यापार करते थे, जो दिल्ली और तिब्बत के बीच विस्तृत यात्राएँ करते थे, उन सबके बारे में उन्होंने अपने यात्रा वृतांतों में कुछ न कुछ लिखा। इसके अलावा सांकृत्यायन ने यूरोपीय देशों के अपने यात्रा विवरण लिखे हैं।
किन्तु दक्षिण एशिया के संदर्भ में सांकृत्यायन का विशेष महत्व है। दक्षिण
एशिया की विशेषता उसकी विषमताओं में है। भारत मे अकेले यह विभिन्नता इतनी अधिक है
कि भारतीय संविधान ने 22 भाषाओं को
संवैधानिक दर्जा दे रखा है। इसके अलावा जनजातीय समूह हैं जिनके रहन सहन, खान पान आदि के बारे में हमारी जानकारी सीमित है। और अगर है भी तो वे बस एक विषय बनकर
रह गए हैं, एक जिज्ञासा के
केंद्र। सांकृत्यायन ने इससे बचने के लिए आत्मीयता की बात कही।
विभाजन से पूर्व के भारत, और फिर 1947 के विभाजन के बाद
की परिस्थितियों के बारे में भी सांकृत्यायन ने भारतीय समाज मे फैली कुरीतियों का
जमकर विरोध किया तथा आदिवासी समाज मे व्याप्त अच्छाइयों का जमकर बखान क़िया। सांकृत्यायन
यायावरी के शुरुवाती दिनों में आर्य समाज की जाति विरोधी विचारधारा से प्रभावित हुए तो आर्य समाजी हो गये। इसी दौरान
उन्होंने समस्त वेद पढ़ डाले। किन्तु जब उन्हें निराशा मिली तो उन्होंने आर्य समाज
त्याग दिया।
मार्क्स की विचारधारा ने भी उन्हें प्रभावित किया। जिसका परिणाम यह
हुआ की उन्होंने मार्क्स, लेनिन, माओ के कामों का हिंदी अनुवाद किया। साथ ही साथ उनकी विचारधाराओं पर आधारित उपन्यास भी लिखे। भागो नहीं दुनिया
को बदलो इसका एक उत्तम उदाहरण है। इसी समय
वह किसान आंदोलन से भी जुड़े रहे और भारत छोड़ो आंदोलन के समय जेल भी गए।
फिर बौद्ध धर्म से संपर्क हुआ तो बौद्ध धर्म अपना लिया। बौद्ध धर्म के
संपर्क के बाद ही उन्होंने तिब्बत, नेपाल तथा श्रीलंका की यात्राएं की। तिब्बत की
उन्होंने चार बार यात्रा की और वहां
से बुद्ध से संबंधित ढेर सारी ज्ञान सामग्री लेकर आए। उनके तिब्बत के संस्मरण
हिंदी साहित्य के लिए अनमोल है। श्रीलंका का सांकृत्यायन के जीवन में विशेष
महत्त्व था| सांकृत्यायन पहली बार श्रीलंका 1927 में गए| श्रीलंका पहुँच कर वह
विद्यालंकार विहार - विद्यापीठ में संस्कृत के अध्यापक नियुक्त हुए| साथ ही अपने
प्रमुख उद्देश्य पाली बौद्ध साहित्य के अध्ययन को भी जारी रखा| अपनी प्रथम यात्रा
के दौरान वह 18 महीने श्रीलंका में रहे, और समस्त त्रिपिटक का अध्ययन कर लिया|
सितम्बर 1928 में विद्यालंकार विहार – विद्यापीठ ने सांकृत्यायन को त्रिपिटकाचार्य
की उपाधि प्रदान की| सांकृत्यायन दिसम्बर 1928 में पुनः भारत आ गए| जून 1930 में
एक बार फिर श्रीलंका गए| श्रीलंका में ही बौद्ध धर्म अपनाया और रामोदर साधू से
राहुल सांकृत्यायन हो गए| इस बार की श्रीलंका यात्रा सिर्फ छः महीने की ही रही|
1932 की यूरोप यात्रा में सांकृत्यायन का परिचय साम्यवाद से हुआ| यूरोप से ही पुनः
श्रीलंका 1933 में गए| सांकृत्यायन की आखिरी श्रीलंका यात्रा 1959 में हुई|
श्रीलंका की विभिन्न यात्राओं के दौरान सांकृत्यायन ने बौद्ध धर्म के
प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया|
फिर उनकी नेपाल की यात्राएं थीं, यहाँ से भी वे बुद्ध से सम्बंधित पांडुलिपियाँ, चित्र, आदि भारत लेकर आए। सांकृत्यायन ने
बौद्ध धर्म के भारत में पतन पर लिखा है, और वे अंतिम समय तक प्रयास करते रहे कि बौद्ध धर्म का भारत में पुनः
प्रवर्तन हो सके।
सांकृत्यायन के अनुसार घुमक्कड़ के लिए कोई सीमाएँ नहीं होती। यह पृथ्वी एक है जिस पर विभिन्न संस्कृतियाँ, समुदाय, समाज पल-बढ़ रहे हैं। घुमक्कड़ का काम है
कि वह सबको जानने का प्रयत्न करे। इसी सन्दर्भ में दक्षिण एशिया की परिकल्पना में सांकृत्यायन का जीवन महत्वपूर्ण
हो सकता है।
तालिका: सांकृत्यायन के लम्बे यायावरी जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण यात्राओं का विवरण
मई 1927 |
श्रीलंका |
जुलाई 1929 |
पहली तिब्बत
यात्रा |
जून 1930 |
पुनः श्रीलंका |
जुलाई 1932 |
यूरोप की यात्रा |
अप्रैल 1934 |
दूसरी तिब्बत
यात्रा |
अप्रैल 1935 |
एशिया की
महायात्रा: कलकत्ता से रंगून – मलाया – हांगकांग – जापान – कोरिया – मंचूरिया –
साइबेरिया के लम्बे रेल मार्ग का सफ़र – मोस्को – ईरान – बलूचिस्तान – भारत| इस
यात्रा में सांकृत्यायन को करीब साढ़े छः महीने लगे| 2 अप्रैल 1935 को कलकत्ता से
सफ़र की शुरुआत की और पुनः 12 अक्टूबर 1935 को लाहौर पहुँचे| |
1936 |
तिब्बत की तीसरी
यात्रा |
1937 |
दूसरी सोवियत
यात्रा |
1938 |
तिब्बत की चौथी
यात्रा |
1959 |
पुनः श्रीलंका |
सौरभ वर्मा एक स्वतंत्र रिसर्चर हैं,उन्होंने दिल्ली विश्व विद्यालय से समाज शास्त्र में एम.ए. किया है