अनामिका अधुना
शिक्षा के क्षेत्र में पहले से ही मौजूद समस्या-ग्रस्त प्रवृत्तियाँ थीं, जिन्हें बदलने की ज़रूरत थी लेकिन इसके विपरीत कोविड ने उन्हें और अधिक मज़बूत कर दिया है ।
Photo-Anamika Adhuna |
हमारी शैक्षिक पृष्ठभूमि और प्रवृत्तियाँ -
सरकारी स्कूल सार्वजनिक शिक्षा के संस्थान हैं यानि कि ये सभी तबकों के बच्चों के लिए बने हैं
। इन स्कूलों में, ऐसा दावा किया जाता है कि शिक्षा के अधिकार के तहत 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा प्रदान की जाती है
। गौर करें कि यह सुविधा शिक्षा के अधिकार कानून (RTE) Act Section
12(1)(c) के तहत दी जाती है (क्योंकि “सभी” बच्चों की शिक्षा राज्य की ज़िम्मेदारी है), न कि किसी ख़ास तबके के बच्चों के ही लिए विशेष रूप से
।
लेकिन फिर ऐसा क्यों है कि यदि अभिभावकों में थोड़ा-सा भी सामर्थ्य है तो वे अपने बच्चे को किसी निजी स्कूल में फीस देकर पढ़वाने को प्राथमिकता देते हैं ? आर्थिक रूप से निम्न व मध्यम वर्ग की तो आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा उनके बच्चों की शिक्षा पर खर्च होता है । बच्चे किस स्कूल में पढ़ते हैं, यह किसी परिवार की आर्थिक हैसियत बताने का माध्यम बन गया है । DISE (District
Information Urban India System on Education) की रिपोर्ट पर नज़र डालेंगे तो पाएँगे कि वर्तमान भारत में निजी स्कूलों की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ रही है। निजी स्कूल अब प्राथमिक स्तर पर लगभग 38 प्रतिशत नामांकन करते हैं, जबकि सरकारी स्कूल का विकल्प पहले की तुलना में कम पसंद किया जाता है। 2003 से 2015-16 की अवधि के दौरान, प्राथमिक कक्षाओं में नामांकन में सरकारी स्कूलों की हिस्सेदारी 2003 में 80.37 प्रतिशत से घटकर 2016-17 में 58.6 प्रतिशत हो गई, जबकि निजी स्कूलों को नामांकन का पहले से एक बड़ा हिस्सा मिला।
वंचित छात्र सरकारी स्कूलों में कांसन्ट्रेटिड हैं, जिनकी शिक्षा की गुणवत्ता के प्रति अक्सर सरकार अपनी जवाबदेही टाल देती है । ये छात्र बहुधा “कल्चरल कैपिटल” से रहित “फर्स्ट-जेनरेशन लर्नर” होते हैं। इनके जीवन की विषम परिस्थितियाँ पढ़ने में और भी अधिक बाधाएँ उत्पन्न करती हैं । यह भी देखा जाता है कि अक्सर निजी स्कूल ऐसे बच्चों को स्कूल से निकाल देते हैं जिनको पढ़ाना उनके वश में नहीं होता। ऐसे “निष्कासित” बच्चों को अंततोगत्वा सरकारी स्कूलों में ही शरण मिलती है .
प्रश्न वहीं का वहीं है - यह सब कवायद आखिर क्यों ? पढ़ाई की गुणवत्ता । “गुणवत्ता” शब्द से जो भी हमारे स्कूल, अभिभावक या सामान्य लोग समझ पाते हैं, उसकी बात की जाए तो यह तो मानना पड़ेगा कि ये निजी स्कूल उतना तो ज़रूर दे पा रहे हैं, जो सरकारी स्कूल नहीं दे पा रहे ।
एनरोलमेंट बढ़ाने के लिए सरकार ने कई तरीके अपनाए और उन पर काफ़ी पैसा भी खर्च हुआ है जिनमें माइनॉरिटी-अनुसूचित जाति- अनुसूचित जनजाति के मद में पैसे, स्कॉलरशिप, वर्दी-जूते-कॉपी-किताब-स्टेशनरी, मिड डे मील के प्रावधान से लेकर अब नई शिक्षा नीति-2020 में नाश्ते की व्यवस्था तक काफी कुछ है । यह सब कुछ तो सभी बच्चों का अधिकार है, जो ज़रूर मिलना चाहिए और समय से मिलना चाहिए । लेकिन इन्हीं प्रावधानों का गलत तरीके से क्रियान्वयन ही शिक्षा की गुणवत्ता के रास्ते में बाधा बनकर खड़ा है । ज़मीनी सच्चाई को देखें तो आप पाएँगे कि पढ़ाई से इतर बाक़ी प्रशासनिक कार्यों के क्रियान्वयन का ज़रिया शिक्षक को बना दिया गया है । सरकारी स्कूल चलाने के लिए अपेक्षित स्टाफ और संसाधनों के अभाव में शिक्षक ही स्कूल चला रहे हैं लेकिन पढ़ाई को ताक पर रख कर
।
वर्तमान स्थिति में, वंचित छात्र सरकारी स्कूलों में कांसन्ट्रेटिड हैं, जिनकी शिक्षा की गुणवत्ता के प्रति अक्सर सरकार अपनी जवाबदेही टाल देती है ।
ये छात्र बहुधा “कल्चरल कैपिटल” से रहित “फर्स्ट-जेनरेशन लर्नर” होते हैं। इनके जीवन की विषम परिस्थितियाँ पढ़ने में और भी अधिक बाधाएँ उत्पन्न करती हैं । यह भी देखा जाता है कि अक्सर निजी स्कूल ऐसे बच्चों को स्कूल से निकाल देते हैं जिनको पढ़ाना उनके वश में नहीं होता। ऐसे “निष्कासित” बच्चों को अंततोगत्वा सरकारी स्कूलों में ही शरण मिलती है चाहे उनके अभिभावक एक औसत निजी स्कूल की फीस भरने को भी तैयार हों ।
यहाँ, यह भी जानना दिलचस्प है - एक शोध के मुताबिक कि छात्रों के अकादमिक प्रदर्शन की भिन्नता के लिए स्कूल के अन्दर के कारक केवल एक-तिहाई सीमा तक ज़िम्मेदार होते हैं, जबकि स्कूल के बाहर के कारक बाकी के 60 प्रतिशत की सीमा तक ही ज़िम्मेदार होते हैं (Haertel, E. H.
(2013). Reliability and validity of inferences about teachers based on student
test scores. Princeton, NJ: Educational Testing Service.) यूँ कहा जा सकता है कि असली शैक्षिक गुणवत्ता का मसला भी बहुआयामी है, जिसके पीछे केवल शैक्षिक कारक नहीं हैं, अपितु सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिस्थितियों का एक जटिल मिश्रण है ।
जहाँ तक शिक्षकों की बात आती है,वे आधिकारिक आदेशों को लागू करने का एक निष्क्रिय साधन बना दिया गया है और उसकी भूमिका को मात्र एक क्लर्क में तब्दील कर दिया गया है।
गुणवत्ता के मामले में एक बात और कही जा सकती है । ऐसा नहीं है कि विशेषाधिकार-प्राप्त पृष्ठभूमि के बच्चों को “गुणवत्ता” की शिक्षा मिल रही है। वहाँ भी छात्रों पर “अच्छे” या “कमज़ोर” की लेबलिंग की जाती है। “अच्छे” छात्रों पर शिक्षकों के समय और संसाधनों का केंद्रीकरण होना आम चलन है। निजी स्कूल का लगभग प्रत्येक छात्र स्कूल के बाद लगभग हर विषय का ट्यूशन जाता है । स्कूलों में आवश्यक सामाजिक विविधता नहीं हैं और इस तरह सीखने का समग्र सामाजिक माहौल महंगे निजी स्कूलों में भी अनुपस्थित है । सामाजिक विविधता बच्चों में ज़रूरी मानवीय मूल्य विकसित करने में सहायक होती है, जो उन्हें वर्ग-जाति इत्यादि भेदों से इतर सोचने के लिए प्रेरित करती है । इसी संदर्भ में, पिछली शिक्षा नीतियों (1968 व 1986) में जब कॉमन स्कूल सिस्टम की संकल्पना की गई थी तब भी यही माना गया था कि बच्चे चाहे जिस भी पृष्ठभूमि से हो, उनके लिए स्कूलों की एक-सी सुविधा दी जानी चाहिए । कालांतर में कॉमन स्कूल सिस्टम की बात पर तो अमल हुआ नहीं, नई शिक्षा नीति में भी इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है । यहीं से स्पष्ट होता है कि अभी तक की सभी सरकारों ने स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में जो भी प्रयास किए, उनके बावजूद समाज में कुल मिलाकर असमानता निरंतर बढ़ती ही जा रही है। शिक्षा-प्राप्ति के – ‘अवसर’ और ‘तरीके’ - हर तबके के लिए अलग बन चुके हैं ।
जहाँ तक शिक्षकों की बात आती है, वे आधिकारिक आदेशों को लागू करने का एक निष्क्रिय साधन बना दिया गया है और उसकी भूमिका को मात्र एक क्लर्क में तब्दील कर दिया गया है। शिक्षाविद् कृष्णकुमार के शब्दों में शिक्षक “meek dictator” ही बनकर रह गए हैं, जिन्हें प्रशासन के सामने बोलने का अधिकार नहीं है, लेकिन इसके विपरीत परंतु इसी अनुक्रम में हमारी “क्लासरूम शिक्षा-पद्धति” कुछ इस प्रकार विकसित हुई है कि वे कक्षा में बच्चों के साथ डिक्टेटर/ तानाशाह बनकर पेश आते हैं । हम देखेंगे तो पाएँगे कि उपरोक्त गुणवत्ता का मसला हर जगह उभरकर आता है ।
कोविड-19 के संदर्भ में : हमारी वर्तमान स्कूली शिक्षा व्यवस्था
शिक्षा के क्षेत्र में पहले से ही मौजूद समस्या-ग्रस्त प्रवृत्तियाँ थीं, जिन्हें बदलने की ज़रूरत थी लेकिन इसके विपरीत कोविड ने उन्हें और अधिक मज़बूत कर दिया है ।
उच्च वर्ग / जाति की जीवन शैली व उनके साधन तथा उनके शैक्षिक अनुभवों का आधिपत्य (Hegemony) हमेशा से ही कथित मुख्यधारा में स्थापित रहा है । प्रशासकों द्वारा सरकारी स्कूलों के लिए ऑनलाइन शिक्षण करवाने में निजी स्कूलों की जो नकल की जा रही है, वह विशेषाधिकार प्राप्त/ प्रिवेलेज्ड बच्चों के संदर्भ में तो चल सकता है लेकिन गरीब व साधनहीन बच्चों के लिए नहीं। ऑनलाइन शिक्षा के लिए सभी निजी स्कूलों ने बिना सोचे-समझे जो तरीके अपनाए हैं, अभिभावकों पर जो बोझ डाला है, वह बोझ सरकारी स्कूल नहीं डाल सकते। अगर दिल्ली की बात करें तो यहाँ सरकारी स्कूलों में एलीमेंट्री स्तर के बच्चों के लिए अधिकतर व्हाट्सैप के ज़रिए व कई बार लाइव कक्षाओं के ज़रिए, और बड़े बच्चों के लिए लाइव ऑनलाइन कक्षाओं के ज़रिये पढ़ाई करवाई जा रही है । इन लाइव कक्षाओं के लिए तो रोज़ाना लंबी अवधि के लिए लैपटॉप या फिर मोबाइल की ज़रुरत होती है, जिस पर एक बार में एक ही बच्चे की पढ़ाई संभव है। सरकारी स्कूलों में बच्चों की अधिक जनसंख्या एलीमेंट्री स्तर पर एनरोल्ड है । इन बच्चों की बात करें तो व्हाट्सैप के लिए भी बहुत से अभिभावकों के पास एक परिवार में एक स्मार्टफ़ोन भी नहीं हैं, न ही डेटापैक, बल्कि उनकी आर्थिक समस्याएँ पहले से भी अधिक भीषण हो गई हैं ।
जबकि यह सब बच्चों को इसी आधार पर मिलता था कि इनके अभाव में बच्चा शिक्षा ग्रहण करने में सक्षम नहीं हो पाएगा ! दिल्ली में भी मिड-डे-मील द्वारा जो पोषण बच्चों तक पहुँचता था, या समय-समय पर ज़रूरी दवाइयाँ, डॉक्टरी चेक-अप इत्यादि सुविधाएँ - जिन तक बच्चों की पहुँच थी - वह सब फिलहाल रुका हुआ है।
सेहत से संबंधित दूसरी ज़रूरी सुविधाएँ व किताबें-कॉपियाँ-स्टेशनरी जैसे पढ़ाई-लिखाई के साधन – वह सब जो कोविड के समय से भी पहले बच्चों को नियमित तौर पर मिलने का प्रावधान था और देर-सवेर मिलते भी थे – फिलहाल इन सबके बारे में सोचने का प्रशासन के पास समय नहीं है । जबकि यह सब बच्चों को इसी आधार पर मिलता था कि इनके अभाव में बच्चा शिक्षा ग्रहण करने में सक्षम नहीं हो पाएगा ! दिल्ली में भी मिड-डे-मील द्वारा जो पोषण बच्चों तक पहुँचता था, या समय-समय पर ज़रूरी दवाइयाँ, डॉक्टरी चेक-अप इत्यादि सुविधाएँ - जिन तक बच्चों की पहुँच थी - वह सब फिलहाल रुका हुआ है। जिन बच्चों के पास “प्रिंट-रिच एनवायरनमेंट” पहले से ही नहीं है, उनका शैक्षिक सत्र तो अप्रैल में ही व्हाट्सैप/ कथित ऑनलाइन मोड में आ गया लेकिन किताबें अत्यधिक देरी से मिली हैं । इस तरह ज़रूरी साधन दिए बिना केवल ऑनलाइन शिक्षा पर निर्भर हो जाना काफी हास्यास्पद भी है । इस प्रकार दूरस्थ पढ़ाई के लिए (खासकर प्राथमिक शिक्षा के बच्चों को) किसी बड़े व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता होती है जो सरकारी स्कूलों के बच्चों के अभिभावक नहीं कर पाते । अपने बच्चों के पिछड़ जाने के भय से कई अभिभावकों ने कोविड के समय में भी उन्हें ट्यूशन भेजना शुरू कर दिया है । यही सबसे बड़ी विडंबना है कि जिस कारण से स्कूल बंद हैं, उसी परिस्थिति में बच्चे घर से बाहर ट्यूशन की कक्षाएँ लेने को मजबूर हैं । इसके उलट, प्रिवेलेज्ड पृष्ठभूमि वाले बच्चों के पास निजी ज़रूरी संसाधन तो हैं ही, कोविड के दौरान घर / ट्यूशन पर कई तरह की सहायता प्रणालियाँ भी पहले से मौजूद होती है, जबकि यह महामारी अन्य वंचित बच्चों के लिए एक आपदा बनकर आती है । सरकारी स्कूलों में ऑनलाइन शिक्षा पहुँचाने के नाम पर प्रशासन को बस एक-तरफ़ा संप्रेषण प्रक्रिया में दिलचस्पी है और दूसरे छोर पर जो गिने-चुने बच्चे/ अभिभावक बैठे हैं, उनकी इस तरह की शिक्षा-प्रक्रिया हेतु कोई विशेष राय नहीं ली जा रही है । बात साफ़ है, जो इस शिक्षा-प्रणाली के साथ सामंजस्य बिठा सकने में सक्षम है, वही इसमें बना रहेगा ।
कोविड के समय में शिक्षकों की भी स्थिति अच्छी नहीं है । शिक्षकों के काम के घंटे विस्तृत होते जा रहे हैं। इसके अलावा प्रशासन द्वारा शिक्षकों को हर तरह से नियंत्रित करने का प्रयास ही किया जा रहा है । पढ़ाने की आज़ादी और सृजनात्मकता भी अब कई मायनों में प्रभावित हुई है । शिक्षकों से घर-घर जाकर कोविड हॉटस्पॉट में सर्वे करवाने की जगह उनकी सेवाएँ शिक्षा के क्षेत्र में ही ठीक से ली जाती तो बेहतर होता। यह भी जग-ज़ाहिर है कि दिल्ली नगर निगम के शिक्षकों का वेतन कई-कई महीनों तक रोकने की प्रवृत्ति रही है, जो कोविड के समय में भी जारी है । देर से मिलने वाले वेतन में भी कटौती की जा रही है । दिल्ली सरकार के स्कूलों में तो फिर भी “टैबलेट” शिक्षकों को दिया गया था, लेकिन दिल्ली नगर निगम में ऐसा नहीं है । डेटापैक पर निरंतर होने वाला खर्च भी नगर निगम के शिक्षकों को नहीं दिया जा रहा है । समाचारों में भी अकसर नगर निगम के शिक्षक यूनियन के धरने-प्रदर्शन की बात आती रहती है। किसी भी शिक्षक के लिए तभी ठीक से पढ़ाना संभव है, जब उसके मन में अपने काम को लेकर उत्साह होगा । शिक्षकों के प्रति प्रशासन के इस रवैये से निजी स्कूल भी अछूते नहीं हैं।
कोविड सर्वे करते सरकारी स्कूलों के अध्यापक |
कोविड से पहले की शिक्षा पद्धति भी अक्सर आलोचना का विषय रही है, जिसे बेहतर बनाने पर विमर्श चलता रहता है । किताबों और कक्षा से बाहर की दुनिया से शिक्षा का रिश्ता दोबारा जोड़ने की बात होती रही है । अभी कुछ समय पहले तक जहाँ हम अपने बच्चों को इंटरनेट और मोबाइल के दुष्प्रभावों से दूर रखना चाह रहे थे, कोविड के कारण हम इन्हीं के चंगुल में फँसते चले जा रहे हैं । ऐसे में इस प्रकार बिना किसी तैयारी के ऑनलाइन शिक्षा को तुरंत प्रभाव में लाने से बच्चे, अभिभावक और शिक्षक - सभी के मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर भी पड़ रहा है।
कुल मिलाकर, कथित लोकतांत्रिक सरकार का पूँजीवादी रवैया देखने में आ रहा है । ऑनलाइन शिक्षा तो सरकार को सस्ती पड़ रही है क्योंकि टीचर हो या बच्चे – सब ऑनलाइन शिक्षा के लिए बहुधा निजी साधनों का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं । खर्च के नाम पर सरकार न तो सामान्य दिनों में देने वाली सुविधाएँ बच्चों को दे रही है, न ही शिक्षकों को पूरा वेतन । नवउदारवाद ने बच्चों की शिक्षा के लिए आवश्यक सार्वजनिक जीवन को बाज़ार की ताक़तों के अधीन कर दिया है । कल्याणकारी राज्य की भूमिका सिकुड़कर अब और भी कम हो गई है। कोविड ने इसमें अप्रत्याशित रूप से भारी सहयोग किया है ।
फ़िनलैंड : कोविड के दौरान शिक्षा व्यवस्था
आपदाएँ जब आती हैं, तो उनसे निपटना कैसे संभव होगा इसमें हमारी वर्तमान अच्छी-बुरी परिस्थितियाँ और पहले से मौजूद सरकारी नीतियाँ और कार्य-प्रणाली बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस संदर्भ में अगर बात करें दुनिया की बेहतरीन शिक्षा-व्यवस्था के बारे में तो पहला नाम आता है फ़िनलैंड का वर्ल्ड टॉप 20 एजुकेशन पोल
वर्ल्ड टॉप 20 एजुकेशन पोल 209 राष्ट्रों में से शीर्ष 20 शिक्षा प्रणालियों की वार्षिक अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग प्रदान करता है। प्रत्येक देश की रैंकिंग पाँच शैक्षिक स्तरों पर आधारित होती है: प्राथमिक बाल्यावस्था नामांकन दर; एलीमेंट्री गणित, विज्ञान और पठन स्कोर; मिडिल-स्कूल गणित, विज्ञान और पठन स्कोर; हाई-स्कूल स्नातक दरें; और कॉलेज स्नातक दरें। इस पोल के आँकड़ों को 6 अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से संकलित किया जाता है - Organisation for Economic Co-operation and Development (OECD), Programme for International Student Assessment (PISA), the United Nation’s Economic and Social Council (UNESOC), The Economist Intelligence Unit (EIU), the Trends in International Mathematics and Science Study (TIMSS) and Progress in International Reading Study (PIRLS)।
फ़िनलैंड में सरकारी स्कूलों का चलन है और निजी स्कूलों की संख्या न के बराबर है । ऐसे में यह स्थापित होता है कि वहाँ कोविड से पहले भी शिक्षा के संदर्भ में समानता को बढ़ावा देने का माहौल रहा है । वहाँ की शिक्षा व्यवस्था शिक्षाविद् (Educators) ही चलाते हैं । प्रारंभिक शिक्षा को खेल के माध्यम से सीखने की अवधारणा के आसपास रखा गया है। 6 वर्ष की आयु तक, छात्रों को स्कूलों में प्रवेश लेने की आवश्यकता नहीं होती है। जब बच्चा 7 साल का हो जाता है, तो वे बुनियादी/ बेसिक शिक्षा शुरू करते हैं। अगले नौ वर्षों के लिए, वे “सिंगल स्ट्रक्चर एजुकेशन” का पालन करते हैं, जो अनिवार्य है । इसके बाद बच्चे अपनी पसंद के अनुसार यूनिवर्सिटी या वोकेशनल एजुकेशन का चयन कर सकते हैं । फ़िनलैंड की शिक्षा-व्यवस्था में सबकी जरूरतों को ध्यान में रखकर, पाठ्यक्रम को संशोधित करने के लिए विशेष कदम उठाए जाते रहते हैं। शिक्षा के लिए FNAE (Finnish National Agency for Education) - शिक्षकों और स्कूलों – दोनों के लिए आत्म-मूल्यांकन को बढ़ावा देता है। इसके अलावा, फिनलैंड में कोई राष्ट्रीय मानकीकृत परीक्षण नहीं है, लेकिन वे बच्चों के सीखने के परिणामों का निरंतर मूल्यांकन करते रहते हैं। स्कूलों में दी जाने वाली अन्य महत्त्वपूर्ण सुविधाओं में से एक है - मुफ्त भोजन । फ़िनलैंड में बहुत कम होमवर्क दिया जाता है
University of Turku ने एक महत्वपूर्ण सर्वेक्षण पूरा किया जिसमें दूरस्थ शिक्षा और सीखने के मुद्दों और कल्याण के संदर्भ में बच्चों और शिक्षकों से सवाल पूछे गए । ..... मोटे तौर पर देखा जाए तो बच्चों और शिक्षकों के पास एक आंतरिक प्रेरणा थी, जो एक सहयोगी माहौल में ही पनप पाती है ।
Contemporary
International epidemiological Understanding के अनुसार फिनिश बेसिक शिक्षा ने अन्य देशों की तुलना में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है । फ़िनलैंड में मार्च से पहले ही कुछ स्कूलों ने छोटी-मोटी स्थितियों के लिए आपातकालीन रणनीति बना ली थी । वहाँ 17 मार्च से ही स्कूल बंद कर दिए गए थे लेकिन निम्न प्राथमिक ग्रेड (1-3) उन बच्चों के लिए खुले रखे थे जिनके अभिभावक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्यरत थे । इस दौरान वहाँ दूरस्थ शिक्षा के द्वारा व्यवस्था चलती रही जो 13 मई तक चली । वहाँ वर्ष 2019 के अंत में ही 75% बेसिक शिक्षा और उच्चतर माध्यमिक शिक्षकों को शिक्षाविदों (Educators) द्वारा “वर्चुअल लर्निंग एनवायरमेंट टूल्स” व्यवस्था प्रदान कर दी गई थी, जिसका लगभग सभी शिक्षकों ने उपयोग भी किया था I “प्रोजेक्ट-आधारित शिक्षा” और “रियल-लाइफ प्रॉब्लम-सॉल्विंग” के रूप में स्व-निर्देशित अध्ययन से बच्चे भी परिचित थे। इसके अलावा, सभी शिक्षक आत्म-मूल्यांकन सहित निरंतर मूल्यांकन से परिचित थे। दूरस्थ शिक्षा के परिणामों का आकलन करने के लिए पहले से ही किए गए तीन साल के “पाठ्यक्रम मूल्यांकन रिफॉर्म” पर्याप्त थे। इस प्रकार कोविड संकट के कारण उस दौरान स्थानीय स्कूल अपनी “डिजिटल लीप” लेने के लिए पूरी तरह तैयार थे।
कोविड के दौरान, फिनलैंड के लोगों के लिए सबसे बड़ी सफलता पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन के संदर्भ में थी। FNAE के अनुसार, कोविड के कारण शुरुआत में कुछ भ्रम की स्थिति के बावजूद, मूल पाठ्यचर्या व सार्थक शिक्षण बाधित नहीं हुआ। इस बाधा का अर्थ एकतरफा सम्प्रेषण द्वारा शिक्षा देने से नहीं, बल्कि बच्चों तक उसके सही से पहुँचने से भी है । University of Turku ने एक महत्वपूर्ण सर्वेक्षण पूरा किया जिसमें दूरस्थ शिक्षा और सीखने के मुद्दों और कल्याण के संदर्भ में बच्चों और शिक्षकों से सवाल पूछे गए । शिक्षाविदों (Educators) के लचीलेपन ने शिक्षकों पर विश्वास और उनके तय किए गए मूल्यांकन का समर्थन किया। मोटे तौर पर देखा जाए तो बच्चों और शिक्षकों के पास एक आंतरिक प्रेरणा थी, जो एक सहयोगी माहौल में ही पनप पाती है ।
फिनिश प्रशासन का संवैधानिक दृष्टिकोण, तत्काल आपातकालीन प्रतिक्रिया और प्रभावी स्थानीय प्रशासन – इस तीनों ने एक साथ एक मुख्य प्रवृत्ति के रूप में जवाबदेही को बनाए रखा। प्रशासन की कुछ कमियों के बावजूद, शिक्षकों, अभिभावकों और विद्यार्थियों ने अधिकारियों की अपेक्षा बेहतर काम किया।
(स्रोत- Socio-Educational Policies and Covid-19 -a Case
Study on Finland and Sweden in the Spring 2020 by Jyrki
Loima University of Eastern Finland, July 2020)
सारांश : अधिक समावेशी शिक्षा व्यवस्था की ओर
हमारे देश में कोविड महामारी ने पहले से ही बढ़ रही असमानता की गति को और अधिक बढ़ा दिया है । भारत में कोविड के दौरान ऑनलाइन कक्षाएँ सभी के लिए (विशेषकर गरीब तबके के लिए) नई व्यावहारिक समस्याएँ तो उठा ही रही हैं, लेकिन इस समाज में पहले से मौजूद समस्याओं और शिक्षा की गुणवत्ता की समस्या को फिर से उजागर कर दिया है । शिक्षा को इस प्रकार पुनःव्यवस्थित करने की ज़रुरत है कि यह सभी के लिए अधिक समावेशी, निष्पक्ष और न्यायसंगत बन पाती । यदि पहले से ही समाज में आर्थिक-सामाजिक असमानताओं पर काम करने का विज़न हो और उसी दिशा में सरकारें निरंतर प्रयासरत होतीं, तो वर्तमान की महामारी जैसी अप्रत्याशित स्थिति में भी शिक्षा के अवसर को बराबर रूप से पहुँचाने का काम किया जा सकता था । कॉमन स्कूल सिस्टम इसी कड़ी में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता था । शिक्षा और बच्चों के संदर्भ में विभिन्न सरकारी प्रयासों और नीतियों का आपस में समन्वय भी बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
वे बच्चे जिन्हें पढ़ाई व आधारभूत हितों के लिए स्कूल जाने की सबसे ज्यादा ज़रूरत है, वे ही स्कूल नहीं जा पा रहे और न ही उनके पास दूसरे ऑनलाइन तरीकों से पढ़ाई के साधनों तक पर्याप्त पहुँच है । इसके अलावा हमारी सरकारी शिक्षा व्यवस्था में दूरस्थ शिक्षण-अधिगम में डिजिटल तकनीकों को सार्थक रूप से जोड़ पाने की क्षमता का अभाव भी इस स्थिति को बदतर बना रहा है। शिक्षक हो या बच्चे - किसी के भी निजी मोबाइल/ डेटापैक के आधार पर व्हाट्सैप की ऑनलाइन कक्षाओं के फैसले पर तुरंत आ जाने से बेहतर था कि हम कुछ बिन्दुओं पर आकलन करते। हम सोचते कि ये फैसले हम किसके लिए लेने जा रहे हैं; क्या सरकारी स्कूलों के बच्चों के घरों की भौतिक परिस्थितियाँ - जिनमें पीने के पानी व शौचालय जैसी सुविधाओं का अभाव शामिल है - ऐसी हैं कि वे अपने घर में बंद रह सकते हैं, क्या उनके पास घर में पढ़ने के लिए शांत जगह है, क्या उनके घर पर ही किसी वयस्क की देख-रेख में पढ़ने की स्थिति है या उन्हें बाहर जाकर किसी की मदद से ऑनलाइन गृहकार्य करना पड़ रहा है इत्यादि; ऐसे में क्या उनके लिए स्कूल बंद कर देने का कोई असली फायदा है; मिड-डे मील, हेल्थ चेक-अप, दवाइयाँ आदि- इन सबके अभाव में क्या घर पर वे बेहतर स्थिति में हैं; स्पेशल चिल्ड्रेन जिन्हें आजकल दिव्यांग कहे जाने पर ज़ोर दिया जाता है, उनके लिए भी कोविड के दौरान क्या कोई विशेष व्यवस्था हो सकती है, और क्या स्कूल बंद होने की स्थिति में घरों में बच्चों के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार जैसी समस्याओं के लिए हमने कुछ सोचा रखा है । शिक्षा की किसी पद्धति या योजना के बारे में बेशक पहले से नहीं कहा जा सकता कि वह वर्तमान परोस्थिति में सफल होगी भी या नहीं, लेकिन फिर भी बच्चों की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर कोई योजना बनाई जा सकती थी । बच्चों को रोटेशन के आधार पर स्कूल में ही पढ़ाने की दिशा में प्रयास किए जा सकते थे, जिस से पढ़ाई के साथ-साथ उनके सर्वांगीण विकास पर भी कोविड का नकारात्मक प्रभाव कम हो सकता और उनकी बेहतरी की गुंजाइश होती । इन योजनाओं के क्रियान्वयन पर निरंतर नज़र रखी जाती और ज़रुरत के हिसाब से उनमें साथ-साथ सुधार किया जाता तो यकीनन हम शैक्षिक अवसर में होने वाली असमानता से लड़ने का एक बेहतर प्रयास करते । उसके बाद यदि ऑनलाइन मोड इसमें अतिरिक्त रूप से सहायक होता तो उसकी भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता था - बशर्ते कि सरकार ज़रूरी डिजिटल संसाधन की उपलब्धता और उनके इस्तेमाल के संदर्भ में तैयारी करवा सकती - और इस प्रकार ऑफलाइन और ऑनलाइन पढ़ाई का एक व्यावहारिक संतुलन बन पाता । फ़िनलैंड की तरह, हमारे देश में भी अगर सरकारी शिक्षकों को एक सहयोगी माहौल दिया जाता और उनके साथ प्रशासन का भरोसे का संबंध बनता, तो शिक्षा की गुणवत्ता पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता I हमारे शिक्षाविदों के विभिन्न अनुभवों को आधार बनाया जाता और संविधान के बराबरी के मूल्य को केंद्र में रखकर उनसे इन मसलों पर मदद लेने का भी प्रयास किया जा सकता था । फ़िनलैंड जैसे देशों ने न सिर्फ कोविड से पहले भी शिक्षा के क्षेत्र में अपनी सामान्य कार्य-प्रणाली से पूरी दुनिया के लिए नज़ीर पेश की है, बल्कि कोविड के दौरान भी कैसे कार्य करना है इसका अच्छा उदाहरण पेश किया है ।
बच्चों की शिक्षा और सामान्य कल्याण का विषय वर्ग आधारित न होकर यदि सभी के लिए समान रूप से क्रियान्वित होगा तो ही हम कह पाएँगे कि यह सच्ची सार्वजनिक शिक्षा है, जो दीर्घकाल में हमें गुणवत्ता की ओर भी ले जाने में सक्षम होगी ।
अनामिका स्त्री मुक्ति संगठन से जुड़ी हैं और इन्होंने B.El.Ed, M.Ed. (Ele. Edu.) किया है