मनोज मल्हार

 

वोट्स फॉर वीमेन, पब्लिक मीटिंग, मेक योर वौइस् हर्ड

प्रोटेस्ट अनरेस्ट एंड सिविल डिसऑबिडीएंस

- ‘एनोला फिल्म में प्रयुक्त पर्चों की अपील.

 

 “...जो (महिला मताधिकार के लिए स्त्री आन्दोलनकारी) हिंसक रास्ता अपनाने के पक्षधर थीं उन्हें suffragettes कहा जाने लगा. 1897 तक आन्दोलन की उपलब्धियां सीमित थी. आन्दोलनकारी भी उच्च वर्ग से थे. इनकी संख्या सीमित थी

   -गोपा जोशी, भारत में स्त्री असमानता, पृष्ठ -295, संस्करण -2015


  शर्लोक होम्स जासूसी साहित्य का प्रसिद्ध चरित्र है जो अपने जासूसी रहस्यों को सुलझाने और सत्य तक पहुँचने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। इसी श्रृंखला में निर्देशक हैरी ब्रैडबीर की नई फिल्म कुछ महीने पहले रिलीज़ हुई है एनोला होम्स एनोला का फ़िल्मी जन्म 1884 है और वो 16 की उम्र में अपने भाई शर्लोक होम्स से अलग जासूसी और खोज के अभियान में शामिल रहती है।  फिल्म की कहानी का समय 1884 से लेकर 1900 तक का है। पश्चिम के नारीवादी आन्दोलन पर लिखी गयी कोई भी अच्छी किताब इस काल को महिला मताधिकार के लिए स्त्रीवादियों द्वारा किये गये संघर्ष को बताती है। गोपा जोशी की पुस्तक से ऊपर इसी बाबत उद्धरण दिया गया है। किताब और फिल्म के कथानक में समानता और एकरूपता सिनेमा- कला के लिए एक बेमिसाल और स्वागत योग्य चीज है। फिल्म में आन्दोलनकारियों का एक वर्ग इस विश्वास के तहत हिंसा का रास्ता चुनता है कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है  वे किसी राजनीतिक दल की मीटिंग में बाधा पहुंचाती हैं। जेल जाती हैं।  भूख हड़ताल करती हैं। एक बार जेल से रिहा होने पर किसी दूसरी पहचान के साथ गिरफ्तारी देती हैं। घोड़ों के टापों के नीचे जाती हैं ... ये सब इसलिए कि समाज, संस्थान और अख़बार वाले उनकी मांगों को सुनें और विचार करें। इस फिल्म के लेखक - निर्देशक ने इस काल खंड की घटनाओं और चरित्रों का सहारा लेकर एक मनोरंजक और संवेदनशील फिल्म बनायी है जो सहज , सरल और जीवंत प्रस्तुति के कारण बार बार देखे जाने का लालच उत्पन्न करती है।

यद्यपि फिल्म एनोला होम्स के द्वारा और उसके नजरिये से कही गयी है, फिल्म के हर दृश्य, हर संवाद, हर घटना पर एनोला की मां यूडोरिया होम्स की छाप है। हर समय उसकी मौजूदगी है।  यूडोरिया परदे पर बमुश्किल दस मिनट के लिए उपस्थित है, पर कहानी का पूर्ण आधार वही है। वह  एक क्रांतिकारी महिला है।  वह शब्दों से खेलने वाली महिला है।  उसने बचपन से एनोला को मजबूत बनना और अपना रास्ता खुद चुनना सिखाया है। वो ऐसी मां है जिसने एनोला को जे.एस. मिल की सब्जेकशन ऑफ़ वीमेन,   एम्बंक्मेंट , ‘जॉन ऑफ़ आर्क सहित ढेर सारी किताबें पढ़ने को दी हैं । मानसिक और शारीरिक खेल में उसे शामिल करती है। चाकू तेज़ करना सिखाती है। यूडोरिया की एक दिलचस्प सोच है दिन की शुरुआत हमेशा इतिहास पढ़ने से करनी चाहिए और बिना पावर के जीवन कैसा होता है?” .. और बिना कुछ बताये वह एक दिन गायब हो जाती है। अब किशोर वय एनोला अपने शर्लोक भाईयों के साथ है।  जिसमें से बड़ा भाई मिक्रोफ्ट उसे अपनीजिम्मेदारीसमझ कर उसे अदा और नाजुकता सिखाना चाहता है ताकि वो एक कुलीन महिला का जीवन जी सके या कोई कुलीन व्यक्ति उस पर रीझ कर शादी कर ले। पर उसका नाम एनोला है ; अंग्रेज़ी शब्द अलोन का उल्टा।

(एनॉल होम्स फिल्म के पोस्टर से )

फिर कहानी में रुढ़िवादियों और सुधारवादियों/ क्रांतिकारियों में दिलचस्प संघर्ष का चित्रण है। एनोला घर से भाग कर लन्दन पहुँचती है और स्मृति और संकेतों के सहारे मां की तलाश का अभियान शुरू करती है। उसकी स्मृति में उसके घर में हो रही एक गुप्त बैठक की यादें हैं जिसमें उसकी मां के साथ पांच- सात और स्त्रियाँ है। उन्होंने टेबल पर लन्दन का एक नक्शा फैला रखा है और किसी खास स्थान को पिन पॉइंट कर रही हैं। एनोला उन स्त्रियों के सीने पर गुलाबी रंग की पट्टी को याद करती है। वह उस स्थान को भी ढूंढ लेती है जहां वे बम बनाती  थीं ।

इसके साथ राजभवन से भागे राजकुमार लार्ड टेवक्सबरी की भी कहानी है जो शीघ्र ही हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स का सदस्य बनने वाला है। एनोला, यूडोरिया और राजकुमार के संघर्षों की अंतिम परिणति रिफार्म बिल पर होने वाली वोटिंग है जिसमें राजकुमार लार्ड टेवक्सबरी का वोट निर्णायक है। उसके परिवार में व्याप्त रुढ़िवादी विचारों की समर्थक दादी और कुछ सहयोगी राजकुमार को इसलिए मारने की योजना बना रहे हैं कि रिफार्म बिल पास हो पाए। उनके अनुसार महिलाओं के लिए सुधार बिल का पास होना महान इंग्लैंड का पतन होगा। स्त्रियाँ हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स और हाउस ऑफ़ कॉमन्स में पहुँच जायेंगी। फिल्म का ये पक्ष अभी के, ग्लोबलाइजेशन के दौर की वास्तविकताओं से जुड़ जाता  हैं जहां धार्मिक- कट्टरवादियों में और आधुनिकता और मानव- अधिकार के समर्थकों में गहन संघर्ष चल रहा है। व्यक्ति के चयन के संविधान -प्रदत्त अधिकारों पर धार्मिकता से प्रेरित मूल्यों और नैतिकताओं को जबरन व्यक्तियों पर थोपा जा रहा है। इस बैकग्राउंड में इस फिल्म की विषय- वस्तु अत्यंत समकालीन और लोगों की समकालीन अभिरुचि से जुड़ जाने वाली है। रुढ़िवादी गुंडों के हाथों पिट रही कोई भी आधुनिक लड़की या छात्रा एनोला की छवि प्रस्तुत कर सकती है। इस परिदृश्य में ड्रामा है जो बेहद मनोरंजक है। ड्रामा में ताज़गी और नयापन है। कहानी में एनोला होम्स की चारित्रिक गरिमा को बनाकर रखा गया है जो विचार एवं कार्यों से सुधारवादियों के साथ है... एकदम अभी की राजकीय पुलिस और सांप्रदायिक फासीवादी गुंडों से जूझती लड़की की तरह।  

कहानी में परंपरागत विचारों वाला एक स्कूल भी है जहां लड़कियों को अदाएं, नाजुकता और मुस्कराने और चलने के अंदाज़ सिखाए जाते हैं। स्कूल का नाम है मिस हैरिसन गर्ल्स फिनिशिंग स्कूल मतलब सांस्थानिक स्तर पर ऐसे गर्ल्स स्कूल की अवधारणा है जो सख्ती के साथ उदार और आधुनिक विचार वाली लड़कियों को नाजुकता और अदाएं सिखाने का काम करता है।  एनोला को ऐसे स्कूलों के प्रति स्वाभाविक घृणा है क्योंकि वह बेहूदे कपड़ों में एक कैदी की जिंदगी नहीं जी सकती समाज सुधार आन्दोलन की पृष्ठभूमि में प्रगतिशील और परम्परावादी ताकतों के बीच दिलचस्प खेल है। इसकी प्रतिछाया वर्तमान में भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों में देखी जा सकती है।एनोला होम्स की कहानी में रुढ़िवादी जीवनशैली और मान्यता वाले व्यक्ति खलनायक बनाये गये हैं।

यहपुस्तक और सिनेमा श्रेणी की फिल्म है।  इसकी पटकथा नैंसी स्प्रिन्गर के उपन्यास केस ऑफ़ मिस्सिंग मर्क़ुएस्स : एन एनोला होम्स मिस्ट्री पर आधारित है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों की स्थितियों को, लंदन की पृष्ठभूमि को रुचिकर रूप दिया गया है। सबसे खास है इतिहास की घटनाओं और संघर्षों का कुशल कथात्मक प्रयोग। तत्कालीन समाज में प्रकाशित पत्र- पत्रिकाओं के अंकों का समावेशन उस युग के द्वन्द्व को ताज़ा एवं जीवंत कर देता है। जैसे हम किसी शोध प्रबंध से गुजर रहे हों। फिल्म के दृश्य किताबों में छपे फोटो के कोलाज से लगते हैं।मैगज़ीन ऑफ़ मॉडर्न वीमेनहुड , ‘ जर्नल ऑफ़ ड्रेस रिफार्म यूडोरिया के पसंदीदा समाचार पत्र हैं। इसके अलावा जे. एस. मिल और मैरी वोल्सटन क्रॉफ्ट की किताबों का प्रयोग इतिहास और सिनेमा के संबंधों को नया आयाम और गहराई देता है। इसके संवाद एकदम आधुनिक और समकालीन लगते हैं और मनोरंजक भी। एक्शन और फोटोग्राफी शेर्लोक होम्स फिल्मों की गरिमा के अनुकूल ही है। उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में महिला मताधिकार आन्दोलन की झलकियाँ देखने के लिए, इतिहास और सिनेमा के सुंदर संबंधों को समझने के लिए, और  ये जानने के लिए कि आज की युवा पीढ़ी जिस स्वतंत्रता और अधिकारों का आनंद ले रही है इसके लिए पूर्ववर्ती पीढ़ियों ने कितना संघर्ष और त्याग किया है यह फिल्म महत्वपूर्ण है।

इसकी तुलना बॉलीवुड की फिल्मों से किये जाने पर निराशा हाथ लगती है। अगर कला और सरोकार वाले सिनेमा को छोड़ दें तो मेनस्ट्रीम बॉलीवुड की फिल्मों मैं इतिहास की घटनाओं पर ऐसी तथ्यात्मकता और बारीकी की अपेक्षा किसी अलग ही तारामंडल की बात लगती है। मतलब बॉलीवुड अभी ऐतिहासिकता और इसकी संभावनाओं से बहुत बहुत दूर है। यहाँ इतिहास को सिर्फ अतिभावुकता पूर्ण और मसाला के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जैसा की पहले कहा --- श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, मुज़फ्फर अली सरीखे फिल्मकारों की बात अलग है। बेनेगल की मेकिंग ऑफ़ महात्मा, भारत एक खोज और गोविन्द निहलानी की तमस कुछ कार्य हैं जिन्हें सराहा जा सकता है।  

  

मनोज मल्हार दिल्ली के कमला नेहरू कॉलेज में हिन्दी के प्राध्यापक हैं।