रवीन्द्र त्रिपाठी
उनकी कविता का एक और नियामक तत्व संगीत है। संगीत प्रेमी तो वे थे ही। पर मात्र सुनने या आस्वाद के स्तर पर नहीं। संगीत उनके अंतस्तल में बसा था। उनकी रचनात्मकता का हिस्सा था। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की संरचना ने भी उनकी कविता के शिल्प को निर्मित किया।
किसी कवि या लेखक को समझने की कई विधियां हो सकती हैं और ये आपस में अविरोधी होती हैं। मंगलेश डबराल ( 16 मई 1948- 9 दिसंबर 2020) को भी कई तरीके से समझा जा सकता है। और ऐसा होना शुरू भी हो गया है। पर इस दौरान ये भी हमेशा याद रखना होगा कि वे मुख्यत: और अंतत: एक कवि थे। हालांकि उन्होंने लगभग आधी सदी तक पत्रकारिता भी की। कई आलोचनात्मक लेख भी लिखे। विपुल मात्रा में अनुवाद भी किए। संस्मरण और यात्रावृत्त भी लिखे। पर इन सारी सक्रियताओं के बावजूद उनके भीतर कविता की केंद्रीयता हमेशा मौजूद रही। यानि पत्रकारिता करते हुए, आलोचना-संस्मरण लिखते हुए और अनुवाद करते हुए भी वे हमेशा कवि बने रहे। कविता उनके लिए आत्माभिव्यक्ति भर नहीं थी। वो उनके रोजमर्रा के जीवन में, उनकी त्वचा में और उनकी सोच में घुली हुई थी।
पुस्तकाकार अप्रकाशित मगर पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉगों में प्रकाशित कविताओं को छोड़ दें तो मंगलेश डबराल के कुछ छह कविता संग्रह हैं- `पहाड़ पर लालटेन’,
`घर का रास्ता’,
`हम जो देखते हैं’,
`आवाज भी एक जगह है’, `नए युग में शत्रु’ और `स्मृति एक दूसरा समय है’। आठवें दशक के जिस दौर में उनके कवि-व्यक्तित्व का उदय हुआ वो हिंदी कविता में रघुवीर सहाय के उत्कर्ष का भी था। रघुवीर जी नई कविता की धारा के कवि थे। आरंभिक दौर में अज्ञेय से प्रभावित। लेकिन जैसे जैसे हिंदी कविता में मुक्तिबोध का काव्य-व्यक्तित्व विस्तृत होता गया और कविता सामाजिक सरोकारों से अधिकाधिक जुड़ने लगी, हिंदी कविता का मिजाज बदलने लगा। इसी संधि वेला में रघुवीर सहाय की कविता ने हिदी कविता को एक नया मुहावरा और नई भंगिमा दी। हालांकि तब नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह और त्रिलोचन का काव्य व्यक्तित्व भी विस्तारित होता गया, लेकिन मंगलेश डबराल और उनकी पीढ़ी के कुछ और कवि जिस कवि की संवेदना और काव्यभाषा के सबसे करीब थे वो रघुवीर सहाय ही थे।
जिस दूसरे काव्य-व्यक्तित्व ने मंगलेश डबराल पर, विशेषकर बीसवीं सदी के आठवें और नवें दशक में, असर डाला था वे थे जर्मन कवि और नाटककार बर्टोल्ट ब्रेष्ट। उस कालखंड में, और उसके बाद भी, मंगलेश जी ने ब्रेष्ट की कई कविताओं के हिंदी अनुवाद किए। हालांकि ब्रेष्ट की मौजूदगी वैसे भी हिंदी कविता और हिंदी नाटकों में काफी बढ़ रही थी। ब्रेष्ट ने जिस `अलगाव सिंद्धांत’ को प्रतिपादित किया उसने नाटक, कथा साहित्य और कविता में गुणात्मक बदलाव किये। फिलहाल नाटकों और कथा-रचनाओं की बात छोड़ दें और कविता तक ही सीमित रहें तो ये कहा जा सकता है कि ब्रेष्ट ने वैश्वित स्तर पर कविता को जिस तरह विश्लेणात्मक बनाया वो हिंदी कविता मे भी सुनाई देने लगा।
पर यहां ये भी याद रखना होगा कि रघुवीर सहाय और ब्रेष्ट के प्रति बेहत संवेदनात्मक और वैचारिक लगाव के बावजूद मंगलेश डबराल की कविता एक स्वतंत्र और अपनी निजी पहचान के साथ विकसित हुई। वहां पहाड़ से आये एक ऐसे कवि थे जो मैदान में आकर और व्यापक होते गए- मैं पहाड़ में पैदा हुआ और मैदान में चला आया/ यह कुछ इस तरह हुआ जैसे मेरा दिमाग पहाड़ में छूट गया था/ और शरीर मैदान में चला आया/ या इस तरह जैसे पहाड़ सिर्फ मेरे दिमाग में रह गया/ और मैदान मेरे शरीर में बस गया।
उनकी कविता का एक और नियामक तत्व संगीत है। संगीत प्रेमी तो वे थे ही। पर मात्र सुनने या आस्वाद के स्तर पर नहीं। संगीत उनके अंतस्तल में बसा था। उनकी रचनात्मकता का हिस्सा था। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की संरचना ने भी उनकी कविता के शिल्प को निर्मित किया। इसके बारे में विस्तार से बात की जा सकती है मगर फिलहाल इतना कहना शायद पर्याप्त होगा कि जैसे शास्त्रीय गायन, विशेषकर ख्याल गायिकी, में रागबद्धता का अनुशासन हमेशा मौजूद रहता है किंतु उसका बड़प्पन उसके भीतर निहित उस उपज से तय होता है जो गायक अपनी गायकी में पेश करता है, वैसे ही मंगलेश डबराल की कविताएं शिल्प के स्तर पर सुगठित हैं और विचार के स्तर पर व्यापक। एकदम संतुलित। उन्होंने संगीत और संगीतकारों को लेकर कई कविताएं लिखी हैं जो इसका साक्ष्य है। यहां सिर्फ़ एक उदाहरण दिया जा रहा है जो उनकी कविता `राग शुद्ध कल्याण’ से है-
शुद्ध कल्याण सुनते हुए/ तुम उसके आरपार देख सकते हो/ l तुम्हारे अपने ही स्वर उनमें गूंजते हैं/ भले ही तुमने उन्हें पहले कभी न सुना हो/ और तुम उन्हें अकेले भी नहीं सुन रहे हो/ कोई तुम्हारे साथ है तुम्हारे भीतर/ तुम्हारा कोई अंश जो सहसा तुम्हें पहली बार दिखाई दिया है/ स्वरों की एक बौछार/ बार बार तुम्हें भिगो देती है/वह तुम्हारा सारा कलुष धो रही है/ ऐसे ही किसी क्षण में तुम उसको गा सकते हो/ क्योंकि उसमें इतनी कोलमता है/ क्योंकि तुम खुद उसकी कोमलता के बहुत पास पहुंच चुके हो/ कि उसे गाए बिना नहीं रह सकते/
ये अंश तो एक मिसाल भर हैं जो संगीत और मंगलेश डबराल की कविता के अंत:संबंध को दिखाती है। उनकी संगीत संबंधी अन्य कविताएं – `संगतकार’,
`केशव अनुरागी’,
`गुणानंद पथिक’,
`केशव अनुरागी’,
`राग दुर्गा’ आदि भी- इस सिलसिले में पढ़ी, समझी और विश्लेषित की जा सकती हैं।
मंगलेश जी यहां घर, परिवार, मां, पिता भी हैं। बरसों पहले पहाड़ छोड़कर रोजी रोटी की तलाश में दिल्ली-भोपाल- इलाहाबाद-लखनऊ आए इस कवि के यहां घर के रास्ते की तलाश भी हमेशा रही है। पर शायद किसी कवि या कलाकार का घर सिर्फ उसका मिट्टी- सीमेंट-बालू से बना नहीं होता है। वो तो भाषा से बना घर होता है जो हमेशा बनता ही रहता है और कभी पूरा नहीं होता। वही मंगलेश डबराल का घर था जो सिर्फ भौतिक नहीं बल्कि काव्यात्मक भी है।
मंगलेश डबराल ने लगभग आजीवन पत्रकारिता की। वे कई अखबारों और पत्रिकाओं में रहे। लेकिन उनके पत्रकार रूप की सबसे बड़ी पहचान `जनसत्ता’ से रही जिसके आरंभिक संपादक प्रभाष जोशी रहे। हालांकि तकनीकी रूप से `जनसत्ता’ पहली बार प्रभाष जी के संपादन में नहीं निकला था। वो कई साल पहले निकल कर स्थगित और बंद हो चुका था जिसकी लोकस्मृति अब नहीं है। लोगों की याद में वही `जनसत्ता’ है जिसे प्रभाष जोशी ने नवें दशक के आरंभ में शुरू किया था। प्रभाष जी ही मंगलेश डबराल को `जनसत्ता’ में लेकर आए थे और उन्हें `रविवारी जनसत्ता’,
`किताबें’ और `कला’ पेज का प्रभारी बनाया। जैसा कि प्रभाष जी का स्वभाव था उन्होंने मंगलेश जी को पूरी आजादी दी और कभी किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया कि क्या छप रहा है और क्यों छप रहा है। यही कारण था कि जनसत्ता का रविवारी परिशिष्ट, किताबें और कला पेज हिंदी में एक प्रतिमान बन गए। मंगलेश जी ने अपने चयन और संपादन से इन तीनों पृष्ठों को उस बुलंदी पर पहुंचाया जो हिंदी पत्रकारिता में कई दशकों से नहीं हुआ था। रविवारी जनसत्ता में कविता प्रकाशित होना कवि होने का प्रमाण पत्र जैसा हो गया। जिसकी कविता जनसत्ता मे छप गई वो ये मान लेता था कि अब वो हिंदी का एक सम्मानित कवि है। और जिसकी नहीं छपी, और ऐसे लोगों की बड़ी संख्या थी क्योंकि साधारण और खराब कविता लिखनेवालों की भी अपने यहां भरमार है, वे अक्सर कुनमुनाते भी रहते थे कि मेरी कविता क्यों नहीं। स्वाभाविक था कि जब आप चय़न करते हैं तो सबको स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए मीडियाकरों के एक वर्ग की मंगलेश के प्रति शिकायतें भी बनी रहीं। लेकिन ये भी मंगलेश जी के संपादकीय चयन बुद्धि का ही प्रमाण था। यह सवाल आज भी प्रासंगिक है कि क्यों आज भी दिल्ली और दूसरे हिस्से से निकलने वाले हिंदी अखबारों के साहित्यिक परिशिष्ट वो सम्मान हासिल नहीं सके जो ‘जनसत्ता’ ने किया?
बतौर पत्रकार मंगलेश जी की एक और बड़ी खासियत हिंदी पत्रकारिता को साहित्यिक और सांस्कृतिक मूल्यों से सजाना था। `जनसत्ता’ पहला अखबार था, प्रभाष जी और मंगलेश डबराल की सक्रियता की वजह से, जिसमें अज्ञेय, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह जैसे कवियों और राम बिलास शर्मा जैसे आलोचक के पचहत्तर साल पूरे होने पर रविवारी परिशिष्ट केंद्रित किया गया। कुछ लेखकों के साठ वर्ष पूरे होने पर `रविवारी जनसत्ता’ के अंक निकले। हिंदी अखबार पहले से निकल रहे थे पर ऐसे प्रयास बहुत कम होते थे। इस सिलसिले में `जनसत्ता’ का साहित्यिक अवदान चिरस्मरणीय है। हिंदी अखबारों में कला, रंगमंच, संगीत आदि कई विषयों पर गुणवत्तापूर्ण लेखों के शुरुआत भी इसी अखबार से हुई। हिंदी पत्रकारिता का ये वो अध्याय है जिसके बारे में शोध और अध्ययन की जरूरत है। मंगलेश डबराल का कवि- व्यक्तित्व तो बहुज्ञात है लेकिन उनका पत्रकारीय रूप कुछ ही लोगों की जानकारी तक सीमित है। पर पत्रकार मंगलेश भी हिंदी पत्रकारिता के एक शिखर पुरुष हैं।
रवींद्र त्रिपाठी साहित्य-कला-रंगमंच-फिल्म के वरिष्ठ आलोचक, नाटककार, पत्रकार और डाक्यूमेंट्री फिल्मकार हैं।