जॉन बेलेमी फॉस्टर

फ्रेड्रिक एंगेल्स की युवावस्था का एक मशहूर चित्र। विकीमीडिया कॉमंसपब्लिक डोमेन

डायलेक्टिक्स ऑफ नेचर फ्रेड्रिक एंगेल्स की एक मशहूर कृति है। इसी के एक अध्याय, “दि पार्ट प्लेड बाई लेबर इन दि ट्रांज़िशन फ्रॉम एप टू मैन (वानर से मनुष्य बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका) में एंगेल्स ने लिखा है : हर शय हर दूसरी शय पर असर डालती है और उससे प्रभावित होती है। आज उनके जन्म के 200 साल बाद एंगेल्स को आधुनिक युग के संस्थापक पारिस्थितिकी और पर्यावरण विचारकों में शुमार किया जा सकता है। यदि कार्ल मार्क्स की मैटाबॉलिक दरार का सिद्धांत आज ऐतिहासिक-भौतिकवादी पारिस्थितिकी का प्रस्थान-बिंदु है तो ये भी सच है कि धरती के पारिस्थितिकीय संकट के बारे में हमारी जो भी समझदारी है उसमें एंगेल्स का योगदान अपरिमेय है। इस विषय में उनकी समझ प्रकृति में मौजूद सार्वभौमिक मेटाबॉलिज्म के प्रति उनकी जिज्ञासाओं से पैदा हुई थी और इसने मार्क्स के विश्लेषण को भी और बल विस्तार दिया। एंगेल्स के चिंतन पर केंद्रित अपने एक ताजा अध्ययन में पॉल ब्लैकलेज ने जिक्र किया है कि प्रकृति के द्वंद्ववाद संबंधी एंगेल्स की अवधारणा से एक ऐसा धरातल सामने आता है जिस पर खड़े होकर आप पारिस्थितिकीय संकटों को... पूंजीवादी सामाजिक संबंधों के अलगावग्रस्त स्वरूप से पैदा होता हुआ देख सकते हैं। प्रकृति समाज के द्वंद्वात्मक स्वरूप की इसी पद्धति की बदौलत एंगेल्स का काम इस एन्थ्रोपोसीन युग में मानव जाति और समूचे ग्रह के सामने मौजूद महाकाय पारिस्थितिकीय चुनौतियों को समझने में मदद दे सकता है।

कुदरत का प्रतिशोध

हमारी पारिस्थितिकीय समस्याएं व्यवस्था और परिमाण के अंतर्संबंधों का नतीजा हैं। एंगेल्स के विश्लेषण में सबसे ज्यादा जोर व्यवस्था पर दिया गया है। अपनी महान कृति, दि कंडीशन ऑफ वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड, जो उन्होंने एकदम शुरुआती नौजवानी के दिनों में लिखी थी, में उन्होंने विशाल विनिर्माण नगरों, खासतौर से मैनचेस्टर में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप पैदा हुई विनाशकारी पर्यावरणीय एवं रोगजनक परिस्थितियों पर जोर दिया था। उन्होंने नई औद्योगिक फैक्टरी व्यवस्था में मजदूरों पर थोपी जाने वाली भयावह पारिस्थितिकी परिस्थितियों पर प्रकाश डाला था। उन्होंने प्रदूषण, विषैली गंदगी, शारीरिक दुर्बलता, रह-रहकर आने वाली महामारियों, कुपोषण और बड़ी संख्या में असमय मृत्यु, इन सबको चरम आर्थिक शोषण का परिणाम दिखाया था। दि कंडीशन ऑफ दि वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड औद्योगिक क्रांति के समय पूंजीवाद द्वारा अधीनस्थ आबादी की सामाजिक हत्याका आज भी सबसे शक्तिशाली तर्क है।

एंगेल्स के लिए पर्यावरण के प्रति एक तर्कसंगत रवैया अपनाने का प्रस्थान-बिंदु फ्रांसिस बेकन की इस मशहूर उक्ति में मिलता है कि प्रकृति पर विजय पाने का एक ही तरीका है, आप उसका अनुसरण करने लगें। यानी, प्रकृति पर विजय पाने के लिए जरूरी है कि आप उसको जानें और उसके नियमों का पालन करें। मार्क्स और एंगेल्स का मानना था कि बेकन के इस सिद्धांत को बुर्जुवा समाज में प्रकृति को अंकुश में लेने के एक साधन के तौर पर और पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा के तहत उसका दोहन करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था। उनका कहना था कि विज्ञान को मुनाफाखोरी का एक साधन भर बना दिया गया है, प्रकृति को सिर्फ एक ऐसी सीमा के रूप में देखा जा रहा है जिसको धराशायी करना जरूरी है। इसके बअरक्स, उनका मानना था कि पूरे समाज में विज्ञान का तर्कसंगत इस्तेमाल केवल एक ऐसी व्यवस्था में ही संभव है जहां परस्पर संबद्ध उत्पादकों का समूह एक गैर-अलगावी आधार पर प्रकृति के साथ मानवीय मैटाबॉलिक संबंधों को वास्तविक मानवीय आवश्यकताओं और दीर्घकालिक पुनरुत्पादन की संभावनाओं जरूरतों के अनुसार संचालित करे। इससे विज्ञान के द्वंद्ववाद और पूंजीवाद की अनवरत संचय की मुहिम के बीच अंतर्विरोध सामने आता है। इसमें विज्ञान का द्वंद्ववाद प्रकृति के साथ हमारी एकात्मता को और सामाजिक नियंत्रण की तत्संबंधी जरूरतों को रेखांकित करता था जबकि दूसरी तरफ अनवरत संचय की चाह पर्यावरण के निर्बाध दोहन और उसकी उपेक्षा को बढ़ावा देती थी।

इसी गहन आलोचनावादी-विवेचनावादी भौतिकवादी परिप्रेक्ष्य की बदौलत एंगेल्स ने प्रकृति पर विजय की प्रचलित धारणा के बेतुकेपन पर जोर दिया। उन्होंने दिखाया कि यह धारणा प्रकृति को एक ऐसी शय के रूप में देखती है जो मानो कोई विदेशी शक्ति है जिस पर विजय पाना जरूरी है और गोया मानव समाज पृथवी के मेटाबॉलिज्म के मध्य में नहीं बल्कि कहीं बाहर स्थित है। प्रकृति पर विजय की ऐसी चेष्टा को उन्होंने प्रकृति से प्रतिशोध की संज्ञा दी।

प्रकृति और इतिहास का द्वंद्ववाद

एंगेल्स की पारिस्थितिकी अंतर्दृष्टि प्रकृति के उस द्वंद्ववाद के बारे में उनके चिंतन से अलग नहीं की जा सकती जिससे इन अंतर्दृष्टियों का उदय हो रहा था। इसके बावजूदपश्चिमी मार्क्सवाद के नाम से प्रचलित दार्शनिक परंपरा का सबसे पहला सिद्धांत ये था कि द्वंद्ववाद को बाहरी प्रकृति पर लागू नहीं किया जा सकता। यानी, बकौल एंगेल्स, मानव परिधि के बाहर ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे तथाकथित वस्तुनिष्ठ द्वंद्ववाद  कहा जा सके। लिहाजा द्वंद्ववादी संबंध, और यहां तक कि द्वंद्ववादी तर्कशीलता के उद्देश्य भी मानव-ऐतिहासिक परिधि तक ही सीमित रहे जिसमें भाव-पदार्थ के एक जैसे सिद्धांतों को लागू किया जा सकता था क्योंकि मानव चेतना और मानव क्रिया के बाहर मौजूद समग्र नॉन-रिफ्लेक्सिव (परातथ्यात्मक) यथार्थ को विश्लेषण से बाहर छोड़ दिया गया था। पश्चिमी मार्क्सवादी परंपरा के भीतर प्रकृति के द्वंद्ववाद को इस तरह नितांत खारिज कर दिए जाने की वजह से इस प्रसंग में एंगेल्स द्वारा किए गए विश्लेषण तथा प्राकृतिक विज्ञानों मार्क्सवाद के उनके अपरिमित उद्गमकारी एवं पारिस्थितिकीय चिंतन के प्रभावों को अप्रासंगिक बना दिया गया। केवल मुट्ठी भर वामपंथी वैज्ञानिक एवं द्वंद्ववाद भौतिकवादियों के अलावा बाकी सबने उन्हें अप्रासंगिक मान लिया।

चुनांचे, इस क्षेत्र में शास्त्रीय भौतिकवादी द्वंद्ववाद की अंतर्दृष्टियों को बहाल करने के लिए किसी किसी स्तर पर एंगेल्स की प्रकृति के द्वंद्ववाद की अवधारणा को एक बार फिर सामने रखना जरूरी है। इसके लिए जरूरी है कि प्रकृति के द्वंद्ववाद के विषय में एंगेल्स द्वारा पेश की गई पद्धति पर उठाई गई अधकचरी और बहुधा तर्कहीन आपत्तियों को खारिज किया जाए जो आमतौर पर उन तीन द्वंद्ववाद कानूनों के विरुद्ध रही हैं, जो उन्होंने जी.डब्ल्यू.एफ. हेगेल से लिये थे और जिन्हें एंगेल्स ने अपने विश्लेष्ज्ञण से एक नई भौतिकवादी महत्ता प्रदान की थी : (1) मात्रा से गुणवत्ता और गुणवत्ता से मात्रा में रूपांतरण, (2) विलोमों की पहचान या एकता, तथा (3) निषेध का निषेध। उदाहरण के तौर पर, एंगेल्सस फिलॉसफी ऑफ साईंस में पीटर टी. मेनिकास ने इन कानूनों के लगभग नितांत खोखले स्वरूप का हवाला देकर अपना विलाप प्रकट किया है। मगर, एंगेल्स के विश्लेषण में ये सिद्धांत किसी रचनावादी/पॉजिटिविस्ट अर्थ में संकुचित, निर्धारित कानून नहीं थे बल्कि आज की शब्दावली में वे व्यापक, द्वंद्ववादी आधार पर खड़े सत्ता-मिमांसावादी (ऑन्टोलॉजिकल) सिद्धांत थे। एक तरह से ये सिद्धांत प्रकृति की समरूपता के सिद्धांत, पदार्थ की निरंरता के सिद्धांत और कारकता के सिद्धांतों जैसे आधारभूत सिद्धांतों के समकक्ष बैठते हैं। दरअसल, द्वंद्ववाद की एंगेल्स की पद्धति इन्हीं सिद्धांतों की उस समझदारी को विविध प्रकार से चुनौती देती थी जिस तरह उन्हें उस जमाने के वैज्ञानिक दायरों में पेश किया जा रहा था।

प्रकृति के द्वंद्ववाद के प्रति एंगेल्स के योगदान का सबसे सटीक और पैना आकलन - किसी प्राकृतिक वैज्ञानिक द्वारा - 1936 में प्रकाशित एंगेल्स ऐज़ साईंटिस्ट नामक पर्चे में मिलता है जो उस जमाने के प्रख्यात मार्क्सवादी वैज्ञानिक जे. डी. बरनाल ने प्रकाशित किया था। जे. डी. बरनाल बर्कबैक कॉलेज, युनिवर्सिटी ऑफ लंदन में भौतिक तथा एक्सरे क्रिस्टेलोग्राफी के प्रोफेसर थे।

बरनाल के मुताबिक, एंगेल्स के पास अपने दौर के विज्ञान के ऐतिहासिक विकास की जो गहरी समझदारी थी उसके पीछे एक सघन द्वंद्ववादी दृष्टि काम कर रही थी जिसमें प्रकृति की अवधारणा हमेशा एक समग्र और एक प्रक्रिया के रूप में मिलती थी।इस प्रसंग में हेगेल की कमियों को दूर करते हुए एंगेल्स ने उनसे काफी कुछ लिया था और इस बात को रेखांकित किया कि हेगेल ने अपनी किताब लॉजिक में द्वंद्ववादी परिवर्तन का जो भाववादी खाका पेश किया था, उसमें ऐसी प्रक्रियाएं निहित थीं जो प्रकृति में वस्तुनिष्ठ स्तर पर दिखाई पड़ती है।

एंगेल्स ने हेगेल से जो तीन द्वंद्ववादी सिद्धांत या सत्ता-मिमांसावादी सिद्धांत लिये हैं, उनमें मात्रात्मक परिवर्तनों से गुणात्मक और गुणात्मक परिवर्तनों से मात्रात्मक परिवर्तन के सिद्धांत पर बात करते हुए बरनाल ने प्रकृति वैज्ञानिक चिंतन के लिए इसके मूल चरित्र पर प्रकाश डाला था। एंगेल्स कमाल की अंतर्दृष्टि के सहारे बताते हैं कि भौतिकी के तथाकथित निरपेक्ष तथ्य (कॉन्स्टेंट्स) अधिकांशतः केवल ऐसे नोडल प्वाइंट्स होते हैं जहां गुणात्मक अभिवृद्धि या गति की समाप्ति से संबंधित पिंड की अवस्था में एक गुणात्मक परिवर्तन जाता है... अभी तो हमने इन टिप्पणियों और इस तरह के नोडल प्वाइंट्स के महत्व को केवल समझना भर ही शुरू किया है।  जैसा कि ब्रिटिश मार्क्सवादी गणितज्ञ हाइमन लेवी ने कहा था, एंगेल्स की पद्धति आधुनिक भौतिकी में चरण/अवस्था परिवर्तन की अवधारणा की तरफ इशारा कर रही है।

एंगेल्स के दूसरे नियम, विलोमों की अंतर्भेदता, को एक व्यावहारिक धरातल पर परिभाषित करना ज्यादा मुश्किल था मगर वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए ये निहायत महत्व का नियम था। बरनाल ने अपनी व्याख्या में बताया कि इस सिद्धांत में दो परस्पर संबद्ध सिद्धांत समाये हुए हैं : (1) हरेक में उसका विलोम निहित है तथा (2) प्रकृति में कोई स्थायी विभाजक रेखा नहीं होती।  बरनाल का कहना था कि एंगेल्स सापेक्षता के आधुनिक विचार के बहुत नजदीक पहुंच गए थे।  विलोमों की एकता के एंगेल्स के इस विचार को अकसर आज के मार्क्सवादी द्वंद्ववाद में आंतरिक संबंधों की भूमिका में देखा जाता है, जिनमें कम से कम एक पक्ष दूसरे पर आश्रित जरूर होता है। जैसा कि एंगेल्स ने खुद कहा था, प्रकृति में यांत्रिक संबंधों की कल्पित कठोरता और निरपेक्ष वैधता केवल हमारे मस्तिष्क की प्रतिक्रिया का परिणाम है, इस बात की मान्यता ही प्रकृति की द्वंद्ववादी अवधारणा का केंद्रक है।

एंगेल्स का तीसरा द्वंद्ववादी सिद्धांत निषेध के निषेध से संबंधित था जो बरनाल के शब्दों में, केवल शब्दों के स्तर पर विरोधाभासी दिखाई पड़ता था मगर वास्तव में इस बात को इंगित करता था कि ऐतिहासिक विकास या लंबे काल में उद्गम के धरातल पर वस्तु-जगत की कोई भी चीज किसी भिन्न, नए यथार्थ को अपरिहार्य रूप से जन्म देगी, नए भौतिक संबंधों एवं स्तरों का प्रतिनिधित्व करेगी - अकसर ऐसे दमित कारकों या अवशिष्ट तत्वों के माध्यम से, जिन पर हमने पहले अंकुश पा लिया था मगर जो अभी भी विद्यमान हैं। समूचे भौतिक अस्तित्व को सांगठनिक स्तरों के एक सोपानक्रम की ओर बढ़ते हुए देखा जा सकता है जबकि रूपांतरकारी परिवर्तन का अर्थ होता है सांगठनिक धरातल पर अगले स्तर तक विचलन, जैसा कि बीज से पौधा बनने की प्रक्रिया में समझा जा सकता है।

जिन्हें अब इमरजेंट प्रॉपर्टीज (उद्गामी गुणों) के नाम से जाना जाता है, उनके विकास को अब एक बुनियादी जैविक और पारिस्थितिकीय अवधारणा मान लिया गया है।

परंतु, एंगेल्स के द्वंद्ववाद से पारिस्थितिकी के बारे में जो व्यापक अवधारणा सामने आती है वह प्रकृति के द्वंद्ववाद की सबसे महत्वपूर्ण अंर्दृष्टि मानी जाती है और ये एक मुख्य वजह है कि क्यों एंगेल्स के तर्कों की तरफ लौटना इतना महत्वपूर्ण है। एंगेल्स के प्रकृति के द्वंद्ववाद के महत्व की मान्यता हमारे अपने दौर में भी स्थापित हो चुकी है। हार्वर्ड के जीव वैज्ञानिक रिचर्ड लेविंस और रिचर्ड लिवोंटिन ने अपनी ऐतिहासिक कृति, दि डायलेक्टिकल बायोलॉजिस्ट को एंगेल्स को ही समर्पित किया है। उन्होंने अपने शोध और विश्लेषण में एंगेल्स से बहुत कुछ लिया है भले ही कई जगह उसमें संशोधन और उसकी आलोचना भी की है। लेविंस और लिवोंटिन के हार्वर्ड के सहकर्मी और मानव विकास के सिद्धांतकार स्टीफन जे. गोल्ड का मानना है कि एंगेल्स में हमें जीन-संस्कृति सहउद्गम का 19वीं शताब्दी का सबसे बेहतरीन विश्लेषण मिलता है। यानी, डार्विन के अपने जीवनकाल में मानव विकास की सबसे बढ़िया व्याख्या हमें एंगेल्स में मिलती है क्योंकि जीन-संस्कृति सहउद्गम एक ऐसा सिद्धांत है जिसके आधार पर मानव विकास के तमाम सिद्धांतों को स्थापित किया जा सकता है। उद्गम के द्वंद्ववाद की एंगेल्स द्वारा दी गई प्रस्थापना अंततः सबसे क्रांतिकारी साबित हुई। सत्ता मिमांसात्मक, ज्ञानशास्त्रीय दृष्टि से और पद्धति की दृष्टि से, इस विचार का महत्व सबसे प्रखर रूप में नीधम के ऐतिहासिक विश्लेषण में मिलता है। उन्होंने टाइम, दि रिफ्रेशिंग रीवर (यह शीर्षक महान प्राचीन भौतिकवादी हेरेक्लिटस से प्रेरित था) में समेकन स्तरों (या उद्गम) के अपने ऐतिहासिक विश्लेषण में एंगेल्स की इस धारणा का महत्व सबसे प्रखर रूप शब्दों में व्यक्त किया है।

 एन्थ्रोपोसीन युग में एंगेल्स

समकालीन विज्ञान में इस बात को व्यापक मान्यता मिल चुकी है (हालांकि अधिकृत रूप से ना सही) कि भूवैज्ञानिक धरातल पर होलोसिन युग, जो लगभग 12000 साल पहले शुरू हुआ, अब - 1950 के दशक की शुरुआत में - खत्म हो चुका है और अब हम एन्थ्रोपोसीन युग में प्रवेश कर चुके हैं। एन्थ्रोपोसीन युग की शुरुआत पर्यावरण पर पड़ने वाले जबर्दस्त एंथ्रोपोजेनिक प्रभावों में भीषण वृद्धि के कारण हुई है। इन प्रभावों की गति अब इस स्तर तक जा पहुंची है कि वे स्वयं पृथ्वी ग्रह के जीवन चक्र को चुनौती दे रहे हैं। एन्थ्रोपोसीन युग में आप एंगेल्स के पारिस्थितिकीय द्वंद्ववाद को मुकम्मल तौर पर देख सकते हैं। इसी काल खंड में आकर हर चीज की परस्पर निर्भरता, विलोमों की एकता, आंतरिक संबंधों, असतत् परिवर्तन, उद्गामी विकास, पारिस्थितिकीय तंत्र और वायुमंडलीय विनाश के यथार्थ और प्रगति की रैखिक धारणा की आलोचना, इन सबको मानवता और स्वयं पृथ्वी के भविष्य के लिए एक अपरिहार्य दृष्टि की मान्यता मिल चुकी है। एंगेल्स इस बात से गहरे तौर पर अवगत थे कि आधुनिक वैज्ञानिक चिंतन में समूची प्रकृति अब इतिहास में विलीन हो चुकी है और इतिहास प्राकृतिक इतिहास का भेद केवल आत्मचेतन जीवों के उद्गम की प्रक्रिया में ही सिमट गया है।  जिस हद तक मानव समाज अपने श्रम और उत्पादन की प्रक्रिया से और लिहाजा प्रकृति के साथ अपने मेटाबॉलिज्म से कटा होगा, प्रकृति और समाज का विनाश उतना ही स्वाभाविक होगा। पूंजी की मात्रात्मक वृद्धि से पृथ्वी के साथ मानव संबंधों में गुणात्मक रूपांतरण आया है जिसे परस्पर संबद्ध उत्पादकों का समाज ही सही मायनों में संबोधित कर सकता है। यह बात इस तथ्य से जुड़ी हुई थी कि उत्पादन की एक निश्चित गुणात्मक पद्धति (जैसे की पूंजीवाद) मात्रात्मक मांगों के एक विशेष समूह से संबद्ध थी जबकि उत्पादन की गुणात्मक रूप से रूपांतरित पद्धति (जैसे की समाजवाद) से एक बिल्कुल भिन्न मात्रात्मक स्थिति पैदा होती है ।

आज, कोविड-19 महामारी के प्रसंग में इन अंतर्दृष्टियों ने एक नया महत्व अर्जित कर लिया है क्योंकि अब इनके सहारे एक पारिस्थितिकीय समाजवादी दुनिया की रचना के लिए लंबी क्रांति का सूत्रपात किया जा सकता है। परंतु, ऐसे किसी विश्लेषण को सामने लाने के लिए सबसे पहले हमें मानवता और प्रकृति की जटिल एकात्मता की अवधारणा में निहित द्वंद्ववादी विज्ञान (और कला) को खंगालना होगा।


प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक व मंथली रिव्यू पत्रिका के संपादक जॉन बेलामी फ़ॉस्टर के मोंथली रिव्यू के नवंबर 2020 अंक में प्रकाशित लेख का संक्षिप्त अनुवाद।

(अनुवाद - योगेन्द्र दत्त )