महामारी के दौरान समाज को निर्देशित करने वाली ताकतों की प्रतिक्रियाएं वर्तमान मानव समाज की आंतरिक स्थिति के लिए एक अलग खिड़की प्रदान करती हैं। इस खिड़की के माध्यम से हम जो तस्वीर देखते हैं वह बदसूरत और क्रूर है। शासनतन्त्र का डंडा कमजोरों पर ही चलता है, अपने अहं के उन्माद में फ़ंसे शासक सामूहिक त्रासदी में भी अवसरों की तलाश करते हैं, और अमीर लोग सार्वजनिक धोखाधड़ी के माध्यम से और अधिक धन लूटते हैं, जबकि गरीब भूखे मरते हैं।क्रिटीकपत्रिका के इस अंक के लेख इस तस्वीर के पीछे की वास्तविकता को देखने की कोशिश करते हैं। वे कोरोना महामारी को एक अप्रत्याशित घटना के रूप में नहीं मानते। वे इसका उपयोग एक लेंस की तरह करते हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि हमारे समाज इसी प्रकार की प्रतिक्रियायें क्यों करते  हैं?

वर्ष 2020 हाल के इतिहास में सबसे अव्यवस्थित था। नोवेल कोरोना वायरस ने केवल 18 लाख  से अधिक मनुष्यों की जान ली, बल्कि समाज के नियमित कामकाज को भी अस्त व्यस्त किया। भविष्य की ओर देखते हुए, यह दावा आम सुना जा रहा है कि अब चीजें महामारी से पहले वाली स्थिति में नहीं जायेंगी।

वास्तव में, भविष्य के इतिहासकार वर्ष 2020 को ऐसे चिन्हित करेंगे जब सामाजिक संपर्क, आर्थिक व्यवहार, तथा काम करने और मनोरंजन के तरीकों में गुणात्मक परिवर्तन आये। महामारी के दौरान डिजिटल संचार प्रौद्योगिकियां ऐसे स्तरों पर पहुंच गईं कि हमारे शारीरिक अस्तित्व से जुड़ी समय और स्थान की सीमाओं से मुक्त एक आभासी सामाजिक दुनिया पैदा हो गयी गई। टेक्नो-प्रबंधकों ने पाया कि मानसिक श्रमिकों को अपने घरों से काम करवाना अधिक फ़ायदेमंद है। दिन के किसी भी समय, सप्ताह के सभी दिनों में, उन्हें कार्यालय स्थान प्रदान किये बिना उन्हीं के बिजली इन्टरनेट के खर्चे पर काम लिया जा सकता है। भारत जैसे गरीब देश में भी शहरी मध्यम वर्ग ने पाया कि डिजिटल मार्केटिंग प्लेटफॉर्म के माध्यम से घर पर ही नियमित उपभोग का सामान पाना दुकानों से खरीदारी से अधिक सुविधाजनक है। सिनेमा और खेल सहित मनोरंजन उद्योग ने पाया कि पैसा कमाने के लिए सिनेमाघरों और स्टेडियमों में लोगों की भीड़ जरूरी नहीं है। उच्च शिक्षा के प्रबंधक वर्षों से ऑनलाइन शिक्षा पर जोर दे रहे थे। अब अचानक, बिना किसी विवाद और विरोध के, शिक्षक आनलाईन पढा रहे हैं, और छात्रों को कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के भौतिक स्थानों में एक साथ लाये बिना डिग्रियां दी जा रही हैं।। बेशक, डिजिटल सामाजिक संबंधों की नई आभासी दुनिया साइबर-सर्वहारा वर्ग के श्रम के बदौलत संभव है: जैसे कि बैंगलोर के पास विन्स्ट्रोम मोबाइल कारखाने के आठ हजार संविदा कर्मी जिन्हें तीन महीने की मजदूरी पाने के लिए हड़ताल पर जाना पड़ा, या डिलेवरी पुरुषों और महिलाओं की फ़ौज जो शहरों में हर सुबह डिजिटल मार्केटिंग के गोदामों से निकल कर दिन भर सड़कों गलियों में कूच करती हैं, या फ़ाइबर केबल बिछाने वाले, मोबाइल फ़ोन टावर तथा निजी घरों और इमारतों में नेटवर्क का रख रखाव करने वाले कर्मचारी। उन्हें रोजगार की कोई सुरक्षा नहीं है। सीधे भौतिक अर्थ में, उनका काम कमरतोड़ उबाऊ है। पूंजीवाद के तहत श्रम की यह तो पुरानी कहानी है, यहां कुछ भी नया नहीं है!      

आधुनिकता निजी और सार्वजनिक जीवन को अलग करती है। कारखानों, कार्यालयों, बाजारों, लोक राजनीति, विश्वविद्यालयों, और विरोधों, प्रदर्शनों और क्रांतियों के सार्वजनिक जीवन का एक नया क्षेत्र पैदा करती है, जो परिवार के सदस्यों के साथ निजी उपभोग और आराम के दायरे से अलग होता है।  आधुनिक सार्वजनिक जीवन सामाजिकता के विभिन्न रूपों का निर्माण करता है। महामारी के दौरान आये परिवर्तन इस सार्वजनिक सामाजिकता को सबसे सीधे प्रभावित करेंगे। इसके साथ ही, सार्वजनिक क्षेत्र में सीमित गतिविधियों के घरेलू क्षेत्र में प्रवेश करने से नये तनाव पैदा हो रहे हैं। सामाजिकता के पुराने रूपों की मदद के बिना, इन नए तनावों से कैसे सामना किया जाता है, यह देखने वाली बात होगी।

यदि महामारी द्वारा फैलाए गयी सामाजिक प्रक्रियाओं की धुरी की एक दिशा भविष्य में होने वाले परिवर्तनों की झलक दिखाती है तो दूसरी दिशा मानव की सामाजिक वास्तविकताओं को खोदती है। वर्तमान पूंजीवादी समाज का तानाबाना शोषण और उत्पीड़न के संबंधों से बुना गया है। चूंकि सरकारें, कॉरपोरेट्स, सार्वजनिक संस्थान और घर महामारी के झटके का सामना कर रहे थे, इस तानेबाने को व्यवस्थित करने वाले सिद्धांत और इसके प्राथमिक सरोकार खुले में थे। क्या कोई सरकार सबसे कमजोर लोगों के कल्याण के लिए पहले काम करती है, या पहले से ही विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों की सुरक्षा के लिये अधिक चिंतित रहती है? क्या एक केंद्रीय बैंक नया उधार का धन बेरोज़गारी और ग़रीबों को देता है, जो इसका तत्काल उपयोग करेंगे और उद्योगों के लिए मांग पैदा करेंगे, या इस धन का मुख्य लक्ष्य वित्तीय बाजारों में गिरावट को रोकना है, जहां अमीर अपनी अधिकांश संपत्ति रखते हैं? क्या शिक्षा प्रणाली का एकमात्र ध्यान तकनीकी खानापूर्ति पर है, या यह उन छात्रों की जरूरतों पर भी जिनके पास डिजिटल साधनों की कमी है,? हमारे समाज के लीवरों पर नियंत्रण रखने वाले लोगों के व्यवहार ने इस तरह के सवालों के जवाब के बारे में सब संदेह समाप्त कर दिये हैं। 

महामारी के दौरान समाज को निर्देशित करने वाली ताकतों की प्रतिक्रियाएं वर्तमान मानव समाज की आंतरिक स्थिति के लिए एक अलग खिड़की प्रदान करती हैं। इस खिड़की के माध्यम से हम जो तस्वीर देखते हैं वह बदसूरत और क्रूर है। शासनतन्त्र का डंडा कमजोरों पर ही चलता है, अपने अहं के उन्माद में फ़ंसे शासक सामूहिक त्रासदी में भी अवसरों की तलाश करते हैं, और अमीर लोग सार्वजनिक धोखाधड़ी के माध्यम से और अधिक धन लूटते हैं, जबकि गरीब भूखे मरते हैं।क्रिटीकपत्रिका के इस अंक के लेख इस तस्वीर के पीछे की वास्तविकता को देखने की कोशिश करते हैं। वे कोरोना महामारी को एक अप्रत्याशित घटना के रूप में नहीं मानते। वे इसका उपयोग एक लेंस की तरह करते हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि हमारे समाज इसी प्रकार की प्रतिक्रियायें क्यों करते  हैं? असली मुद्दा वास्तविकता कैसी है यह दिखाना नहीं है। बल्कि वास्तविकता ऐसी क्यों है, इस प्रश्न का उत्तर पता करना है। 

अनामिका अपने लेखकोविड - 19 के दौरान हमारी स्कूल शिक्षा प्रणाली’ (Our school education system during Covid-19) में हमारे देश की शिक्षा में पहले से मौजूद दो विशेषताओं पर प्रकाश डालती हैं: एक, विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चों के बीच शिक्षा संसाधनों की अत्यधिक असमानता, और दो, शिक्षकों की  सेवा परिस्थितियों का अवमूल्यन जिनके अधीन उन्हें सरकारी फ़रमानों को लागू भर करने का माध्यम बना दिया गया है। महामारी के दौरान उठाए गए कदमों ने इन दोनों विशेषताओं को और तेज कर दिया है। सरकारी स्कूलों ने, जहाँ काम करने वाले गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ाई करते हैं, मिड-डे मील, किताबें और स्टेशनरी जैसी जरूरी चीजें उपलब्ध कराना बंद कर दिया। इन बच्चों की विशेष परिस्थितियों पर कोई ध्यान दिए बिना, स्कूल प्रबंधन ने ऑनलाइन शिक्षण का फैसला किया। शिक्षकों और छात्रों को अपने निजी डिजिटल संसाधनों पर भरोसा करने के लिए मजबूर किया गया, जिसने केवल सामाजिक सेवाओं के निजीकरण के नवउदारवादी एजेंडे को आगे बढ़ाया। संजय कुमार का लेख  रेड पिल्ल आफ़ पेण्डेमिक’ (महामारी की लाल गोली)  भारतीय और वैश्विक राजनीतिक-आर्थिक वास्तविकता के चार पहलुओं पर केंद्रित है। लॉकडाउन के दौरान भारत में प्रवासी श्रमिकों के संकट से पता चलता है कि दुनिया का तथाकथित सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने सबसे कमजोर लोगों को बुनियादी नागरिकता अधिकार प्रदान करने में हिचकिचाता है। बढ़ती बेरोजगारी का फायदा उठाते हुए नियोक्ताओं ने वेतन घटा दिया है। यहां तक ​​कि जब अर्थव्यवस्था सिकुड़ रही है, तब भी कॉरपोरेट मुनाफे में उछाल आया है। विश्व स्तर पर आर्थिक संकट के प्रबंधन से पता चलता है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद की वित्त पूंजी वैश्विक अर्थव्यवस्था पर हावी है। पूंजीवादी राज्य अब अपने वर्ग चरित्र को एक कल्याणकारी परिधान के तहत तैयार नहीं कर सकते हैं।

सम्पूर्णा दास का लेख कोविड-19, फूड रिलीफ पैकेज्स एंड इमैजिनिंग्स ऑफ इंडियन स्टेट (भोजन राहत की सामग्री तथा भारतीय राज्य की शासकीय कल्पनायें ) लॉकडाउन के दौरान असम सरकार की पाँच किलो चावल वितरण योजना पर एक टिप्पणी है। भोजन से संबंधित मानवविज्ञान की अंतर्दृष्टि को आधार बनाते हुए वे नोट करती हैं कि नव-उदारवादी राज्य पहले नागरिकों को केवल चावल और दाल पर जीवित रहने वाले प्राणियों के रूप में वर्गीकृत करता है, और फिर आपातकालीन भोजन प्रदान करने की अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी को भी गैर-सरकारी संगठनों पर डाल देता है। इस प्रकार राज्य भोजन के राजनीतिकरण के साथ साथ सामाजिक कल्याण का भी निजीकरण करता है। तैस डी संतअन्ना मकाडो का लेख 'सो व्हाट?' - कोरोनावयरस पेण्डेमिक एन्ड दी डीपनिंगऑफ ब्लैक एंड इंडीजेनस जिनोसाईड इन ब्राजील (तो क्या? कोरोना महामारी तथा ब्राजील में अश्वेत मूलवासियों का गहराता नरसंहार) ब्राजील के राष्ट्रपति के रवैये के संदर्भ में वहां पर कोरोना बीमारी की घातकता को चिन्हित करता है। ब्राज़ीलियाई राज्य का मौत के प्रकृतिकरण का रवैया अश्वेत मूल निवासियों के नरसंहार की नीति के अनुरूप है। राज्य महामारी का फ़ायदा 'मारने मरने दिये जानेकी नीति के लिये उठा रहा है।गोइंग ऑनलाइन : एक्स्पीरियंस आफ़ डिजिटल एडुकेशन  एण्ड स्कूलिंग अमंग स्टूडेण्ट्स विद डिसेबिलिटीस’ (‘गोइंग ऑनलाइन : विकलांग छात्रों के बीच डिजिटल और स्कूली शिक्षा का अनुभव ) सागरिका प्रधान द्वारा विकलांग छात्रों के महामारी के दौरान विकलांग छात्रों की शिक्षा पर चर्चा करता है। वह इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं कि उनकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयुक्त साधनों और बुनियादी सुविधाओं की कमी से दुर्गम समस्याएँ पैदा हुई हैं। डिजिटल माध्यम के साथ शिक्षा का स्थान घर में स्थानांतरित हो गया है, जो छात्रों के साथ-साथ माता-पिता के लिए भी अतिरिक्त मुश्किलें पेश कर रहा है। वे विकलांगता की बहुआयामी अवधारणाओं के लिए तर्क देती हैं ताकि व्यक्तिगत आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जा सके। यह एक ऐसी बात है जो लंबे समय से भारत में गायब है.  नयर लोपेज कस्टेल्लनोस का लेखक्यूबन कोऑपेरशन एण्ड सोलिडरिटी इन फ़ेस आफ़ हैल्थ क्राईसिस (‘स्वास्थ्य संकट के समय में क्यूबा में सामूहिकता तथा एकजुटता’ ) पाठकों को क्यूबा ले जाता है। क्यूबा की क्रान्ति ने सब नागरिकों को स्वास्थ्य अन्य सामाजिक सेवाएं प्रदान करने को शुरू से प्राथमिकता दी है। इसके लिये सामूहिकता तथा आम लोगों की भागीदारी पर आधारित व्यवस्था स्थापित गयी है जिसके सहारे क्यूबा ने वर्तमान संकट समेत कई संकटों का सफ़लतापूर्वक सामना किया है। क्यूबा के अनुभवों की तुलना उन देशों से की जानी चाहिये जहां स्वास्थ्य सेवायें निजीकृत हैं।   

हालांकि इस अंक के अन्य लेख सरकारों और अन्य संस्थानों द्वारा उठाए गए महामारी संबंधी कदमों के संदर्भों और परिणामों पर चर्चा करते हैं.  प्रवीण वर्मा का लेख  मजदूर ढाबा: सिटिजन्स इनिशिएटिव ड्यूरिंग कोरोना पेण्डेमिक इन दिल्ली-एनसीआर ( मजदूर ढाबा: दिल्ली-एनसीआर में कोरोना महामारी के दौरान नागरिक पहल ) नागरिकों के एक अद्वितीय प्रयास का वर्णन करता है। मजदूर ढाबे का आरंभिक तात्कालिक उद्देश्य किसी तरह से बेरोजगार प्रवासी श्रमिकों को पका हुआ भोजन उपलब्ध कराना था जो देशव्यापी तालाबंदी की अचानक घोषणा के बाद शहर छोड़ने की कोशिश कर रहे थे। इसने जल्द ही दिल्ली के दो श्रमिक बस्तियों में सामुदायिक रसोई का रूप ले लिया। दान पुण्य की प्रवृत्ति के बजाय श्रमिकों की एकजुटता मजदूर ढाबे का मार्गदर्शक सिद्धांत था। हालांकि, जैसा कि प्रवीण बताते हैं, स्वयंसेवकों को 'नेक काम' और 'सेवाके एक समानांतर नैतिक कम्पास का भी सामना करना पड़ा जो हमारे समाज की धार्मिक आस्थाओं से पैदा होता है। ऐसे  भाव राज्य को आपराधिक लापरवाही के आरोपों से बचाते हैं। समाज में अपनी पैठ बनाने के लिये सांप्रदायिक राजनीतिक  शक्तियां इन भावों का आसानी से शोषण कर ले जाती हैं।

वर्ष 2020 क्रांतिकारी मार्क्सवाद के सह-संस्थापक फ्रेड्रिक एंगेल्स की जन्म शताब्दी वर्ष भी था। एंगेल्स के विचारों की छाप पिछली डेढ़ सदी में पूंजीवाद से परे जाने के सभी प्रयासों में देखी जा सकती है। जैसा कि सर्वविदित है, एंगेल्स केवल एक क्रांतिकारी थे, बल्कि एक मौलिक विचारक भी थे। उनकी दो पुस्तकें, 'प्रकृति का द्व्न्द्ववाद'  और 'परिवार की उत्पत्ति, निजी संपत्ति और राज्य'  उनके अपने अनुसन्धान पर आधरित थीं, तथा उनके समय के विज्ञान में मूल योगदान थीं। आज भी हमारी समकालीन चुनौतियों को संबोधित करने के लिए आवश्यक नए ज्ञान को विकसित करने के लिए उनकी गहरी अंतर्दृष्टि प्रासंगिक है।क्रिटीकके अंक में दो लेखों के संक्षिप्त अनुवाद दिये जा रहे हैं जो इस प्रासंगिकता का स्पष्ट करते हैं। जॉन बेलामी फोस्टर के लेखएन्थ्रोपोसीन युग में एंगेल्स  का डाईलेक्टिकस आफ़ नेचरसे पता चलता है कि कैसे एंगेल्स की व्याख्याओं का द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रकृति के साथ मानवता के संबंधों के विरोधाभासी स्वरूप को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। इसके बिना एन्थ्रोपोसीन की चुनौती का सामना नहीं किया जा सकता है। एलेनोर बर्क लीकोक का लेख एंगेल्स की दूसरी पुस्तक पर एक टिप्पणी है। यह मानवशास्त्रीय अनुसंधान में उनके विचारों के बारे में कुछ सामान्य गलतफहमियों को रेखांकित करता है। वो यह भी दिखाती है कि सीमित जानकरी के बावजूद एंगेल्स ने महत्वपूर्ण बिंदुओं पर सही निष्कर्ष निकाले।

जबकि भारत में मोदी सरकार ने महामारी का इस्तेमाल चुपके से कॉरर्पोरेट हितों को आगे बढ़ाने के अवसर के रूप में किया है,  लोग खुले तौर पर इसकी चालों पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं। उत्तरी राज्यों के हजारों किसान राजधानी की सीमाओं पर शिविर लगाये बैठे हैं ताकि सरकार द्वारा कृषि बाजारों को कॉर्पोरेट लूट की खातिर खोलने के लिए पास किये गये तीन कृषि कानूनों को निरस्त किया जा सके। उनकी सामूहिक भावना, संगठनात्मक कौशल और उद्देश्य की स्पष्टता उल्लेखनीय है। जबकि ऐसा लगता है कि महामारी ने शासकों और शक्तिशाली लोगों में सबसे निन्दनीय मूल्यों को उभारा है, यह लोकप्रिय आन्दोलन जनमानस में दूसरे मूल्यों को दर्शाता है। यह शासकों और शासितों के बीच का विभाजन और विरोध ही नहीं है। विभाजन के दौरान उत्पन्न बलों का नैतिक रूझान अधिक विपरीत नहीं हो सकता है।