अनिल कुमार सिंह

विकिमीडिया कॉमन्स से  साभार, बाबरी मस्जिद विध्वंस राम मंदिर निर्माण पोस्टर, सृजन रुद्र प्रताप सिंह (जिम कार्टर)

अब जबकि गमे-दहर के सारे झगड़े सुलझ चुके हैं और बहुसंख्यक हिन्दू समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली वीएचपी को अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण के लिए सर्वोच्च न्यायालय की सहमति मिल चुकी है तो यह जानना थोड़ा दिलचस्प होगा कि अयोध्या में बनने वाला यह भव्य मंदिर आखिर किन सामाजिक ,राजनैतिक ताक़तों की मंशावों को संतृप्त करने वाला होगा।

 

"लाभ उठाने की प्रवृत्तियों के द्वंद्व के फलस्वरूप अयोध्या राजनीतिक दलों के हाथ का खिलौना बन गई। अयोध्या प्रेमियों का यह विचार था कि यह शांति या सद्भावपूर्वक समाधान तक पहुंच सके - यह प्रयत्न होना चाहिए। लेकिन राजनीतिक स्वार्थ और लाभ के कारण यह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका ।भारत में राम को मर्यादाओं और आदर्शों का मूर्तिमान स्वरूप माना जाता है ,लेकिन इस मुद्दे का उपयोग लाभ उठाने के लिए झूठ, बेईमानी ,दगाबाजी , कपट, चरित्रहनन,दोषारोपण - सभी का आवश्यकतानुसार दुरुपयोग किया गया।"

उपर्युक्त लंबा उद्धरण जनमोर्चा दैनिक के मुख्य संपादक तथा भारतीय प्रेस परिषद के वरिष्ठ सदस्य रहे तथा बाबरी मस्जिद - राम जन्मभूमि विवाद से गहरे वाक़िफ पत्रकार श्री शीतला सिंह की पुस्तकअयोध्या:रामजन्म भूमि - बाबरी मस्जिद का सच पुस्तक से लिया गया है। अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिर निर्माण के पक्ष में फैसला सुना दिया है तथा भारत के धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की जनता द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री अयोध्या आकर भूमिपूजन कर चुके हैं और बाबरी मस्जिद विध्वंस के दोषी सभी अभियुक्तों को सीबीआई की विशेष अदालत दोषमुक्त मान कर ससम्मान बरी कर चुकी है, अयोध्या फैजाबाद में संपादक जी के नाम से लोकप्रिय वयोवृद्ध शीतला सिंह के इस वक्तव्य की अर्थवत्ता काफी बढ़ जाती है। जानने वाले जानते हैं कि अयोध्या पिछले छह सौ वर्षों से भी ज्यादा समय से झूठ के एक बड़े रूपक की तरह रही है जिसका पर्दाफाश करने की कोशिश हमारे समकालीन बड़े इतिहासकार और पुरातत्वविद समय समय पर करते रहे हैं। मिथक को इतिहास से अलग करने की कोशिशों के चलते भले ही विश्व हिन्दू परिषद और संघ परिवार की सांप्रदायिक राजनीति ने इन इतिहासकारों को खलनायक बना दिया हो लेकिन भारत को ठगों और सपेरों तथा अध्यात्म में रमे रहने वाले देश के रूप में साम्राज्यवादी इतिहासकारों द्वारा बनाई गई छवि से बाहर लाने की इनकी कोशिशों को बड़ा समर्थन भी मिलता रहा है। बीसवीं सदी  के सबसे बड़े इतिहासकारों में शुमार एरिक हॉब्स बाम अपनी पुस्तक 'ऑन हिस्ट्री' में खासतौर से बाबरी मस्जिद - जन्मभूमि विवाद के संदर्भ में इन इतिहासकारों की वस्तुनिष्ठ इतिहास दृष्टि की प्रशंसा करते दिखते हैं। यह वस्तुनिष्ठ इतिहास दृष्टि 'अयोध्या का रक्तरंजित इतिहास' के रूप में मिथक और इतिहास का घालमेल करती हुई अयोध्या के गली कूचों में बिकने वाली उस लुगदी गल्प में कभी नहीं पाई जा सकती जिसकी प्रेरणा धर्म के नाम पर अंधी और उन्मादी राजनीति रही हो। अयोध्या इसी उन्मादी सांप्रदायिक राजनीति का शिकार रही है जिसकी अंतिम परिणति अब संघ परिवार के भव्य राम मंदिर निर्माण के रूप में होने वाली है। संपादक जी के शब्दों में 'झूठ,दगाबाजी ,बेईमानी और कपट' विजेता बने हैं और अब तो धर्मनिरपेक्ष संविधान की शपथ लेने वाले संवैधानिक प्रमुख के रूप में देश के प्रधानमंत्री स्वयं अयोध्या में भूमिपूजन कर चुके हैं। पांच अगस्त को आयोजित भूमिपूजन कार्यक्रम में प्रधानमंत्री से पहले बोलते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत ने देश के संवैधानिक प्रमुख के संघ परिवार द्वारा आयोजित भूमिपूजन कार्यक्रम में शामिल होने को सबसे बड़ी उपलब्धि बताया था। जाहिर है कि महात्मा गांधी की हत्या के नैतिक अपराधबोध और लोकनिंदा से दबे और प्रतिबंधित संगठन रह चुके संघ परिवार के लिए देश के प्रधानमंत्री द्वारा प्रदत्त यह प्रमाणपत्र, राम मंदिर निर्माण से भी ज्यादा बड़ी उपलब्धि होने वाली थी और कुछ दिनों बाद ही इस उपलब्धि का जलवा भी दिख गया बाबरी मस्जिद विध्वंस के दोषी सभी आरोपितों के दोषमुक्त होने के निर्णय के रूप में

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण प्रोजेक्ट बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय का नहीं संघ और भाजपा का सुनियोजित अभियान था जिसका उद्देश्य राम मंदिर आंदोलन के जरिए हिंदुओं को एकजुट करके चुनाव में सफलता प्राप्त करना था। अब अपने इस महत्तम प्रोजेक्ट में सफल हो जाने पर वह फिर बृहत्तर हिन्दू   समुदाय का प्रतिनिधित्व करने की बजाय हिन्दू समाज के सवर्ण तबके के वर्चस्व के अपने मूल एजेंडे पर लौट आईं है।

बाबरी मस्जिद विध्वंस में सभी आरोपितों के निर्दोष होने का सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के मंदिर निर्माण के पक्ष में दिए गए फैसले की अवमानना  है जिसमें उसने बाबरी मस्जिद विध्वंस को एक आपराधिक कृत्य माना था बल्कि उस बहुसंख्यकवादी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की अगली कड़ी भी है जिसके चलते बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय अयोध्या में हुए सोलह अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों के नरसंहार को भी भुला दिया गया। गोया वे इंसान नहीं थे और ही भारतीय गणराज्य के नागरिक? अपराधियों को सजा देना तो दूर उस मुकदमे का आज तक कुछ अता पता नहीं है। अब ये सवाल तो बने ही रहना है कि क्या यह देश एक हिन्दू राष्ट्र बन चुका है या उन्नीस सौ पचास में आत्मार्पित संविधान की कुछ भी प्रासंगिकता अभी शेष है ?

अब जबकि गमे-दहर के सारे झगड़े सुलझ चुके हैं और बहुसंख्यक हिन्दू समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली वीएचपी को अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण के लिए सर्वोच्च न्यायालय की सहमति मिल चुकी है तो यह जानना थोड़ा दिलचस्प होगा कि अयोध्या में बनने वाला यह भव्य मंदिर आखिर किन सामाजिक ,राजनैतिक ताक़तों की मंशावों को संतृप्त करने वाला होगा। हालात ये हैं कि राम मंदिर निर्माण तीर्थ ट्रस्ट में अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की बात छोड़ भी दी जाए तो बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व तक नहीं है, दलित समाज से कामेश्वर चौपाल को इसलिए शामिल किया गया क्योंकि उन्होंने ही आंदोलन के दौर में भूमिपूजन करके राम चबूतरे के पास मंदिर निर्माण के लिए पहली नींव की ईंट रखी थी। लेकिन उनके द्वारा किया गया भूमिपूजन और शिलान्यास शायद उतना पवित्र या शास्त्रोक्त नहीं था इसलिए माननीय प्रधानमंत्री जी को संघ परिवार के निमंत्रण पर दुबारा भूमिपूजन करना पड़ा। 

इसके पहले 2003 में भी राम जन्मभूमि न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष और मंदिर आंदोलन के नेता महंत रामचन्द्र दास परमहंस ने फैजाबाद के तत्कालीन कमिश्नर को शिलादान करने से इस आधार पर मना कर दिया था क्योंकि वे कायस्थ थे। उस समय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पीएमओ में तैनात क्षत्रिय जाति के आईएएस शत्रुघ्न सिंह को विशेष विमान से फैजाबाद भेजा था राम शिला का दान ग्रहण करने के लिए। वर्णवादी व्यवस्था में संघ परिवार की अटूट निष्ठा के चलते ही राम मंदिर तीर्थ ट्रस्ट के लगभग सारे के सारे ट्रस्टी सवर्ण ब्राम्हण जाति के है। विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय महासचिव और मंदिर ट्रस्ट के सचिव चंपत राय बंसल वैश्य समुदाय से आते हैं और सवर्ण वर्चस्व के एक प्रतीक से कम उनकी अहमियत नहीं है। इन्हीं अंतर्विरोधों की वज़ह से और अयोध्या में वीएचपी के बढ़ते दबदबे के खिलाफ मंदिर निर्माण ट्रस्ट के गठन के साथ ही अयोध्या के साधु संतों ने इसके खिलाफ मोर्चा भी खोल दिया था किन्तु शासन के सहयोग और दबाव और महंत नृत्य गोपाल दास जी को ट्रस्ट का अध्यक्ष बना कर आक्रोश को ठंडा कर दिया गया।

दरअसल अयोध्या के अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने पहले भी राम मंदिर निर्माण के लिए बाबरी मस्जिद से अपना दावा वापस लेने का प्रस्ताव किया था। उस समय बीएचपी की अति महत्वाकांक्षा और संघ बीजेपी की राजनीति ने इस समझौते को फलीभूत नहीं होने दिया था। जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह पूर्व संघ प्रमुख बाला साहब देवरस से अपनी निजी बातचीत के हवाले से बताते हैं कि राम मंदिर आंदोलन के दौर में मंदिर निर्माण संघ परिवार का कभी भी तात्कालिक लक्ष्य नहीं था। बाला साहब देवरस इसे जन जागरण का आंदोलन बताते थे। उनका मानना था कि मंदिर तो एक दिन बन ही जाएगा, लेकिन तात्कालिक उद्देश्य बहुसंख्यक हिंदुवों को आंदोलन के माध्यम से जागृत और एकजुट करना है। कहना होगा कि संघ परिवार अपनी इस मुहिम में सफल हुआ। सिर्फ बहुसंख्यक हिन्दुओं को एकजुट करने में उसे सफलता मिली बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय को अलग - थलग करने का उसका लक्ष्य भी पूरा हो गया। जाहिर है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण प्रोजेक्ट बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय का नहीं संघ और भाजपा का सुनियोजित अभियान था जिसका उद्देश्य राम मंदिर आंदोलन के जरिए हिंदुओं को एकजुट करके चुनाव में सफलता प्राप्त करना था। अब अपने इस महत्तम प्रोजेक्ट में सफल हो जाने पर वह फिर बृहत्तर हिन्दू   समुदाय का प्रतिनिधित्व करने की बजाय हिन्दू समाज के सवर्ण तबके के वर्चस्व के अपने मूल एजेंडे पर लौट आईं है। 

अयोध्या में हमेशा से संघ परिवार की कोशिश अपना वर्चस्व बनाने की रही है जिसका स्थानीय साधुसंत समय- समय पर विरोध भी करते रहे हैं। बीजेपी सरकार के दबाव में इस विरोध का मुंह जरूर बंद कर दिया गया है लेकिन आक्रोश की चिंगारी कभी - कभी फूटती ही रहती है। अपने इसी वर्चस्व को अयोध्या में बनाए रखने के लिए संघ परिवार ने मंदिर निर्माण ट्रस्ट में अयोध्या के किसी भी साधु - संत को शामिल नहीं किया है। प्रथम घोषित सूची में राम जन्म भूमि न्यास के अध्यक्ष और अयोध्या के सर्वमान्य महंत नृत्य गोपालदास जी का नाम भी नहीं था। अयोध्या में भारी जनाक्रोश को देखते हुए बाद में उनका नाम ट्रस्ट के अध्यक्ष के रूप में शामिल किया गया। बाकी जिन दो लोगो को अयोध्या से ट्रस्ट में शामिल किया गया है उनका राम मंदिर आंदोलन में कोई योगदान रहा है और ही अयोध्या में उनकी कोई सामाजिक ,राजनैतिक हैसियत और जनाधार ही है। राम मंदिर निर्माण ट्रस्ट पर पूरी तरह से बीएचपी और संघ परिवार का कब्ज़ा है और जाहिर है कि अयोध्या में निर्मित होने वाले भव्य राम मंदिर पर भी उसका ही वर्चस्व रहने वाला है

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की शुरुआत के साथ ही गहमागहमी काफी बढ़ गई है। जमीनों के दाम अचानक काफी बढ़ गए हैं। खबरें हैं कि दूसरे प्रदेशों से आकर लोग यहां जमीन खरीद रहे हैं। मंदिर निर्माण के साथ ही राम की एक विराट प्रतिमा की स्थापना भी होनी है। इसके लिए जमीन की तलाश जारी है। हवाई पट्टी का नाम बदल कर श्रीराम अन्तर्राष्ट्रीय एयर पोर्ट कर दिया गया है। एयर पोर्ट के विस्तार की जद में रहे किसानों को कृषि भूमि छीन लिए जाने का भय सता रहा है। किसानों के प्रतिरोध आंदोलन का दमन उनके नेता को जेल भेज कर किया जा चुका है। पर्यटकों के लिए यहां कई फाइव स्टार होटल बनाने की योजनाएं हैं। दर्शन नगर में पहले से बने अस्पताल का नाम बदल कर दशरथ मेडिकल कॉलेज कर दिया गया है। अयोध्या की मुख्य सड़क को चार लेन बनाने का प्रस्ताव सरकार पारित कर चुकी है। इस सड़क के दोनों तरफ टेढ़ी बाज़ार से नया घाट तक बनी हुई छोटी बड़ी दुकानें सब मंदिरों तथा अयोध्या और आसपास के जमींदारों की हैं। अल्पसंख्यक और दलित पिछड़े समुदाय के लोगों के मकान,मंदिर और दुकानें भी इनमें शामिल हैं। काफी समय से किरायेदार होने के कारण इन दुकानों का किराया बहुत कम है और किरायेदार कानून के कारण मालिक इनसे दुकानों को खाली नहीं करा पा रहे। इन धार्मिक या मामूली रोजमर्रा की चीजों को बेचने वाले ज्यादातर लोगों की दैनिक आमदनी सौ दो सौ रुपए रोज की है। अब फोर लेन निर्माण के चलते वह भी इनसे पक्के तौर पर छीन ली जाएगी। मकान मालिक जमीन और मकान का भारी मुआवजा लेकर चांदी काटेंगे और किरायेदारों को बेदखल करने का जो काम वे वर्षों से नहीं कर पा रहे थे वह उनकी तरफ से सरकार खुद करके देगी।

बनारस में काशी विश्वनाथ कारीडोर परियोजना के सीईओ विशाल सिंह का तबादला अयोध्या कर दिया गया है। बनारस में उनके द्वारा चलाए गए ध्वस्तीकरण अभियान को लोग अभी भूले नहीं होंगे। अयोध्या के विकास की इन योजनाओं में बेदखल किए जाने वाले लोगो के पुनर्वास का अभी तक कोई जिक्र नहीं है। अयोध्या हमेशा से गरीब किसानों का तीर्थ रही है। धनी मानी लोग धार्मिक अनुष्ठान और प्रभु सत्संग के लिए काशी,उज्जैन या चारों धाम की यात्रा पर जाते रहे हैं। यहां तक कि अंतिम विश्राम के लिए भी मणिकर्णिका उनकी ज्यादा पसंदीदा जगह रही है। मामूली लोगों की मामूली खुशियां बेचने वाले इन दुकानदारों के साथ ही अयोध्या से उसकी सहजता भी हमेशा के लिए विलुप्त हो जाने वाली है। नई अयोध्या की छवि कॉरपोरेट और बाज़ार से बनने वाली है। अयोध्या में मंदिर निर्माण ट्रस्ट में किसान जातियों जैसे यादव ,कुर्मी ,भर ,पासी,कोरी ,राजभर ,वाल्मीकि ,निषाद , कहार ,नाई ,धोबी ,महा ब्राम्हण,गोसाईं ,कंकाली ,हेला ,चमार ,जाटव ,आदि के साथ ही कायस्थों , जाटों और राजपूतों तक का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। ये सब मिल कर अयोध्या आने वाले तीर्थ यात्रियों का लगभग निन्यानबे प्रतिशत हिस्सा होते हैं। इन्हीं से मंदिरों को राजस्व मिलता है। अब इन्हीं वर्गों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। अयोध्या के साधु संतों को इन वर्गों के असंतोष का कुछ अंदाज़ा हो गया है। तभी कई संतों महंतों ने अपना आक्रोश खुल कर प्रकट करना शुरू कर दिया है। मंदिर निर्माण के लिए अधग्रहीत जमीन के समतलीकरण तथा पिलर गलाने पर ही करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं। ट्रस्ट को मिले चंदे का हिसाब विश्व हिन्दू परिषद के पास है जिसके अंतरराष्ट्रीय महासचिव चंपत राय मंदिर निर्माण ट्रस्ट के भी सचिव हैं। अयोध्या में मंदिर निर्माण परियोजना अब विश्व हिन्दू परिषद की मजबूत पकड़ में चुकी है।


अनिल कुमार सिंह हिन्दी कवि और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे अयोध्या के साकेत पोस्ट ग्रॅजुएट कॉलेज में प्राध्यापक